हजरत मुहम्मद जी जिस साधना को करता था वही साधना अन्य मुसलमान समाज भी कर रहा है। वर्तमान में सर्व मुसलमान श्रद्धालु माँस भी खा रहे हैं। परन्तु नबी मुहम्मद जी ने कभी माँस नहीं खाया तथा न ही उनके सीधे अनुयाईयों (एक लाख अस्सी हजार) ने माँस खाया। केवल रोजा व बंग तथा नमाज किया करते थे। गाय आदि को बिस्मिल (हत्या) नहीं करते थे।
नबी मुहम्मद नमस्कार है, राम रसूल कहाया।
एक लाख अस्सी कूं सौगंध, जिन नहीं करद चलाया।।
अरस कुरस पर अल्लह तख्त है, खालिक बिन नहीं खाली।
वे पैगम्बर पाख पुरुष थे, साहिब के अब्दाली।।
भावार्थ:- नबी मुहम्मद तो आदरणीय है जो प्रभु के अवतार कहलाए हैं। कसम है एक लाख अस्सी हजार पैगंबर हुए हैं तथा जो उनके अनुयाई थे, उनको कसम है कि उन्होंने कभी बकरे, मुर्गे तथा गाय आदि पर करद नहीं चलाया अर्थात् जीव हिंसा नहीं की तथा माँस भक्षण नहीं किया। वे हजरत मुहम्मद, हजरत मूसा, हरजत ईसा आदि पैगम्बर (संदेशवाहक) तो पवित्र व्यक्ति थे तथा ब्रह्म (ज्योति निरंजन/काल) के कृपा पात्र थे, परन्तु जो आसमान के अंतिम छोर (सतलोक) में पूर्ण परमात्मा(अल्लाहू अकबर अर्थात् अल्लाह कबीर) है उस सृष्टि के मालिक की नजर से कोई नहीं बचा।
मारी गऊ शब्द के तीरं, ऐसे थे मोहम्मद पीरं।।
शब्दै फिर जिवाई, हंसा राख्या माँस नहीं भाख्या, एैसे पीर मुहम्मद भाई।।
भावार्थ: एक समय नबी मुहम्मद ने एक गाय को शब्द(वचन सिद्धि) से मार कर सर्व के सामने जीवित कर दिया था। उन्होंने गाय का माँस नहीं खाया। अब मुसलमान समाज वास्तविकता से परिचित नहीं है। जिस दिन गाय जीवित की थी उस दिन की याद बनाए रखने के लिए गऊ मार देते हो। आप जीवित नहीं कर सकते तो मारने के भी अधिकारी नहीं हो। आप माँस को प्रसाद रूप जान कर खाते तथा खिलाते हो। आप स्वयं भी पाप के भागी बनते हो तथा अनुयाईयों को भी गुमराह कर रहे हो। आप दोजख (नरक) के पात्र बन रहे हो।
कबीर-माँस अहारी मानई, प्रत्यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।1।।
कबीर-माँस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच।
कुल की दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।2।।
कबीर-माँस भखै और मद पिये, धन वेश्या स्यों खाय।
जुआ खेलै चोरी करै, अंत समूला जाय।।5।।
कबीर-माँस माँस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।
आँखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय।।6।।
कबीर-यह कूकर को भक्ष है, मनुष देह क्यों खाय।
मुख में आमिख मेलिके, नरक परंगे जाय।।7।।
कबीर-पापी पूजा बैठिकै, भखै माँस मद दोइ।
तिनकी दीक्षा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होइ।।10।।
कबीर-जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।14।।
कबीर-तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान।
काशी करौंत ले मरै, तौ भी नरक निदान।।16।।
कबीर-बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल।।18।।
कबीर-मुल्ला तुझै करीम का, कब आया फरमान।
घट फोरा घर घर बांटा, साहबका नीसान।।21।।
कबीर-काजी का बेटा मुआ, उर में सालै पीर।
वह साहब सबका पिता, भला न मानै बीर।।22।।
कबीर-पीर सबन को एकसी, मूरख जानैं नाहिं।
अपना गला कटाय के, क्यों न बसो भिश्त के माहिं।।23।।
कबीर-मुरगी मुल्ला से कहै, जबह करत है मोहिं।
साहब लेखा माँगसी, संकट परि है तोहिं।।24।।
कबीर-जोर करि जबह करै, मुख से कहै हलाल।
साहब लेखा माँगसी, तब होसी कौन हवाल।।28।।
कबीर-जोर कीयां जुलूम है, मांगै ज्वाब खुदाय।
खालिक दर खूनी खडा, मार मुहीं मुँह खाय।।29।।
कबीर-गला काटि कलमा भरै, कीया कहै हलाल।
साहब लेखा माँगसी, तब होसी जबाब-सवाल।।30।।
कबीर-गला गुसा का काटिये, मियां कहर को मार।
जो पाँचू बिस्मिल करै, तब पावै दीदार।।31।।
कबीर-ये सब झूठी बंदगी, बेरिया पाँच नमाज।
सांचहि मारै झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज।।32।।
कबीर-दिन को रोजा रहत हैं, रात हनत है गाय।
यह खून वह बंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।33।।
कबीर-कबिरा तेई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।36।।
कबीर-खूब खाना है खीचड़ी, माँहीं परी टुक लौन।
माँस पराया खाय के, गला कटावै कौन।।37।।
कबीर-कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटै तुम्हार।।38।।
कबीर-हिन्दू के दया नहीं, मिहर तुरक कै नाहिं।
कहै कबीर दोनूं गया, लख चैरासी माहिं।।39।।
कबीर-मुसलमान मारै करद से, हिंदू मारे तरवार।
कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं जम के द्वार।।40।।
उपरोक्त अमृतवाणी में कबीर खुदा (परमेश्वर) ने समझाया कि जो व्यक्ति माँस खाते हैं, शराब पीते हैं, सत्संग सुनकर भी बुराई नहीं त्यागते, उपदेश प्राप्त नहीं करते, उन्हें तो साक्षात राक्षस जानों। अनजाने में गलती न जाने किससे हो जाए। यदि वह बुराई करने वाला व्यक्ति सत्संग विचार सुनकर बुराई त्याग कर भगवान की भक्ति करने लग जाता है वह तो नेक आत्मा है, वह चाहे किसी जाति व धर्म का हो। जो माँस आहार तथा सुरा पान त्याग कर प्रभु भक्ति नहीं करता वह तो ढे़ड (नीच) व्यक्ति है, चाहे किसी जाति या धर्म का हो। भावार्थ है कि उच्च कर्म करने वाला उच्च है तथा नीच कर्म करने वाला नीच है। जाति या धर्म विशेष में जन्म मात्र से उच्च-नीच नहीं होता। जिन साधकों ने उपदेश ले रखा है उन्हें उपरोक्त प्रकार के बुराई करने वालों के पास नहीं बैठना चाहिए जिससे आपकी भक्ति में बाधा पड़ेगी।(साखी 1-2)
जो व्यक्ति माँस भक्षण करते हैं, शराब पीते हैं, जो स्त्री वैश्यावृति करती है तथा जो व्यक्ति उससे व्यवसाय करवा कर वैश्या से धन प्राप्त करते हैं, जुआ खेलते हैं तथा चोरी करते है, समझाने से भी नहीं मानते, वह तो महापाप के भागी हैं तथा घोर नरक में गिरेंगे।(साखी 5)
माँस चाहे गाय, हिरनी तथा मुर्गी आदि किसी प्राणी का है जो व्यक्ति माँस खाते हैं वे नरक के भागी हैं। जो व्यक्ति अनजाने में माँस खाते हैं(जैसे आप किसी रिश्तेदारी में गए, आपको पता नहीं लगा कि सब्जी है या माँस, आपने खा लिया) तो आप को दोष नहीं, परन्तु आगे से अति सावधान रहना। जो व्यक्ति आँखों देखकर भी खा जाते हैं वे दोषी हैं। यह माँस तो कुत्ते का आहार है, मनुष्य शरीर धारी के लिए वर्जित है।(साखी 6-7)
जो गुरुजन माँस भक्षण करते हैं तथा शराब पीते हैं उनसे नाम दीक्षा प्राप्त करने वालों कीे मुक्ति नहीं होती अपितु महा नरक के भागी होंगे।(साखी 10)
जो व्यक्ति जीव हिंसा करते हैं (चाहे गाय, सूअर, बकरी, मुर्गी, मनुष्य, आदि किसी भी प्राणी को स्वार्थवश मारते हैं) वे महापापी हैं, (भले ही जिन्होंने पूर्ण संत से पूर्ण परमात्मा का उपदेश भी प्राप्त है) वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते।(साखी 14)
जरा-सा (तिल के समान) भी माँस खाकर भक्ति करता है, चाहे करोड़ गाय दान भी करता है, उस साधक की साधना भी व्यर्थ है। माँस आहारी व्यक्ति चाहे काशी में करौंत से गर्दन छेदन भी करवा ले वह नरक ही जायेगा।(नोट - काशी/बनारस के हिन्दूओं के स्वार्थी गुरुओं ने भक्त समाज में भ्रम फैला रखा था कि जो काशी में मरता है वह स्वर्ग जाता है।
अधिक भीड़ होने लगी तब एक और घातक योजना बनाई उसके तहत कहा कि जो शीघ्र स्वर्ग जाना चाहता है उसके लिए गंगा पर एक करौंत भगवान का भेजा आता है। उससे गर्दन कटवाने वालों के लिए स्वर्ग के कपाट खुले रहते हैं। उन स्वार्थी गुरुजनों ने मनुष्य हत्या के लिए एक हत्था खोल दिया। श्रद्धालु भक्तों ने आत्मकल्याण के लिए वहाँ गर्दन कटवाना भी स्वीकार कर लिया। परन्तु ज्ञानहीन गुरुओं के द्वारा बताई साधना से भी कोई लाभ नहीं होता)। इसलिए कहा है कि माँस खाने वाला चाहे कितना भी भक्ति तथा पुण्य व दान तथा बलिदान करे उसका कोई लाभ नहीं।(साखी 16)
बकरी जो आपने मार डाली वह तो घास-फूंस, पत्ते आदि खाकर पेट भर रही थी। इस काल लोक में ऐसे शाकाहारी सरीफ पशु की भी हत्या हो गई तो जो बकरी का माँस खाते हैं उनका तो अधिक बुरा हाल होगा।(साखी 18)
पशु आदि को हलाल, बिस्मिल आदि करके माँस खाने व प्रसाद रूप में वितरित करने का आदेश दयालु (करीम) प्रभु का कब प्राप्त हुआ(क्योंकि पवित्र बाईबल उत्पत्ति ग्रन्थ में पूर्ण परमात्मा ने छः दिन में सृष्टि रची, सातवें दिन ऊपर तख्त पर जा बैठा तथा सर्व मनुष्यों के आहार के लिए आदेश किया था कि मैंने तुम्हारे खाने के लिए फलदार वृक्ष तथा बीजदार पौधे दिए हैं। उस करीम (दयालु पूर्ण परमात्मा) की ओर से आप को फिर से कब आदेश हुआ? वह कौन-सी कुरआन में लिखा है? पूर्ण परमात्मा सर्व मनुष्यों आदि की सृष्टि रचकर ब्रह्म(जिसे अव्यक्त कहते हो, जो कभी सामने प्रकट नहीं होता, गुप्त कार्य करता तथा करवाता रहता है) को दे गया। बाद में पवित्र बाईबल तथा पवित्र कुरआन शरीफ (मजीद) आदि ग्रन्थों में जो विवरण है वह ब्रह्म (काल/ज्योति निरंजन) का तथा उसके फरिश्तों का है, या भूतों-प्रेतों का है। करीम अर्थात् दयालु पूर्ण ब्रह्म अल्लाहु कबीरू का नहीं है। उस पूर्ण ब्रह्म के आदेश की अवहेलना किसी भी फरिश्ते व ब्रह्म आदि के कहने से करने की सजा भोगनी पड़ेगी।)
उदाहरण:- एक समय एक व्यक्ति की दोस्ती एक पुलिस थानेदार से हो गई। उस व्यक्ति ने अपने दोस्त थानेदार से कहा कि मेरा पड़ोसी मुझे बहुत परेशान करता है। थानेदार (SHO) ने कहा कि मार लट्ठ, मैं आप निपट लूंगा। थानेदार दोस्त की आज्ञा का पालन करके उस व्यक्ति ने अपने पड़ोसी को लट्ठ मारा, सिर में चोट लगने के कारण पड़ौसी की मृत्यु हो गई। उसी क्षेत्र का अधिकारी होने के कारण वह थाना प्रभारी अपने दोस्त को पकड़ कर लाया, कैद में डाल दिया तथा उस व्यक्ति को मृत्यु दण्ड मिला। उसका दोस्त थानेदार कुछ मदद नहीं कर सका। क्योंकि राजा का संविधान है कि यदि कोई किसी की हत्या करेगा तो उसे मृत्यु दण्ड प्राप्त होगा। उस नादान व्यक्ति ने अपने मित्रादरोगा की आज्ञा मान कर राजा का संविधान भंग कर दिया। जिससे जीवन से हाथ धो बैठा।
ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा की आज्ञा की अवहेलना करने वाला पाप का भागी होगा। क्योंकि कुरआन शरीफ (मजीद) का सारा ज्ञान ब्रह्म (काल/ज्योति निरंजन, जिसे आप अव्यक्त कहते हो) का दिया हुआ है। इसमें उसी का आदेश है तथा पवित्र बाईबल में केवल उत्पत्ति ग्रन्थ के प्रारम्भ में पूर्ण प्रभु का आदेश है। पवित्र बाईबल में हजरत आदम तथा उसकी पत्नी हव्वा को उस पूर्ण परमात्मा ने बनाया। बाबा आदम की वंशज संतान हजरत ईस्राईल, राजा दऊद, हजरत मूसा, हजरत ईसा तथा हजरत मुहम्मद आदि को माना है। पूर्ण परमात्मा तो छः दिन में सृष्टि रचकर तख्त पर विराजमान हो गया। बाद का सर्व कतेबों (कुरआन शरीफ आदि) का ज्ञान ब्रह्म (काल/ज्योति निरंजन) का प्रदान किया हुआ है। पवित्र कुरआन का ज्ञान दाता स्वयं कहता है कि पूर्ण परमात्मा जिसे करीम, अल्लाह कहा जाता है उसका नाम कबीर है, वही पूजा के योग्य है। उसके तत्वज्ञान व भक्ति विधि को किसी बाखबर (तत्वदर्शी संत) से पता करो। इससे सिद्ध है कि जो ज्ञान कुरआन शरीफ आदि का है वह पूर्ण प्रभु का नहीं है।(साखी 21) जब काजी के पुत्र की मृत्यु हो जाती है तो काजी को कितना कष्ट होता है। पूर्ण ब्रह्म(अल्लाह कबीर) सर्व का पिता है। उसके प्राणियों को मारने वाले से अल्लाह खुश नहीं होता।(साखी 22)
दर्द सबको एक जैसा ही होता है। यदि बकरे आदि का गला काट कर हलाल किया कहते हो तो काजी तथा मुल्ला अपना गला छेदन करके हलाल किया क्यों नहीं कहते यानि अपनी जान प्रिया लगती है, क्या बकरे को अपनी जान प्रिया नहीं है?(साखी 23)
जिस समय बकरी को मुल्ला मारता है तो वह बेजुबान प्राणी आँखों में आंसू भर कर म्यां-म्यां करके समझाना चाहता है कि हे मुल्ला मुझे मार कर पाप का भागी मत बन। जब परमेश्वर के घर न्याय अनुसार लेखा किया जाएगा उस समय तुझे बहुत संकट का सामना करना पड़ेगा।(साखी 24)
जबरदस्ती (बलात्) निर्दयता से बकरी आदि प्राणी को मारते हो, कहते हो हलाल कर रहे हैं। इस दोगली नीति का आपको महा कष्ट भोगना होगा। काजी तथा मुल्ला व कोई भी जीव हिंसा करने वाला व्यक्ति पूर्ण प्रभु के कानून का उल्लंघन कर रहा है, वह वहाँ धर्मराज के दरबार में खड़ा-खड़ा पिटेगा। यदि हलाल ही करने का शौक है तो काम, क्रोध, मोह, अहंकार, लोभ आदि को कर।
पाँच समय नमाज भी पढ़ते हो तथा रमजान के महीने में दिन में रोजे (व्रत) भी रखते हो। शाम को गाय, बकरी, मुर्गी आदि को मार कर माँस खाते हो। एक तरफ तो परमात्मा की स्तुति करते हो दूसरी ओर उसी के प्राणियों की हत्या करते हो। ऐसे प्रभु कैसे खुश होगा? अर्थात् आप स्वयं भी पाप के भागी हो रहे हो तथा अनुयाईयों (साहबाओं) को भी गुमराह करने के दोषी होकर जहन्नम में गिरोगे।(साखी 28 से 33)
कबीर परमेश्वर कह रहे हैं कि हे काजी!, हे मुल्ला! आप पीर (गुरु) भी कहलाते हो। पीर तो वह होता है जो दूसरे के दुःख (पीड़) को समझे उसे, संकट में गिरने से बचाए। किसी को कष्ट न पहुँचाए। जो दूसरे के दुःख में दुःखी नहीं होता वह तो काफिर (अवज्ञाकारी) बेपीर (निर्दयी) है। वह पीर (गुरु) के योग्य नहीं है।(साखी 36)
उत्तम खाना नमकीन खिचड़ी है उसे खाओ। दूसरे का गला काटने वाले को उसका बदला देना पड़ता है। यह जान कर समझदार व्यक्ति प्रतिफल में अपना गला नहीं कटाता। दोनों ही धर्मों के मार्ग दर्शक निर्दयी हो चुके हैं। हिन्दूओं के गुरु कहते हैं कि हम तो एक झटके से बकरे आदि का गला छेदन करते हैं, जिससे प्राणी को कष्ट नहीं होता, इसलिए हम दोषी नहीं हैं तथा मुसलमान धर्म के मार्ग दर्शक कहते हैं हम धीरे-धीरे हलाल करते हैं जिस कारण हम दोषी नहीं। परमात्मा कबीर साहेब जी ने कहा यदि आपका तथा आपके परिवार के सदस्य का गला किसी भी विधि से काटा जाए तो आपको कैसा लगेगा?(साखी 37 से 40)
बात करते हैं पुण्य की, करते हैं घोर अधर्म। दोनों दीन नरक में पड़हीं, कुछ तो करो शर्म।।
कबीर परमेश्वर ने कहा:-
हम मुहम्मद को सतलोक ले गया। इच्छा रूप वहाँ नहीं रहयो।
उल्ट मुहम्मद महल पठाया, गुज बीरज एक कलमा लाया।।
रोजा, बंग, नमाज दई रे, बिसमिल की नहीं बात कही रे।
भावार्थ:- नबी मुहम्मद को मैं (कबीर अल्लाह) सतलोक ले कर गया था। परंतु वहाँ न रहने की इच्छा व्यक्त की, वापिस मुहम्मद जी को शरीर में भेज दिया। नबी मुहम्मद जी को काल ब्रह्म से पर्दे के पीछे से जो आदेश मिला था, वह उस आदेश में काल ने भी रोजा (व्रत) बंग (ऊँची आवाज में प्रभु स्तुति करना) तथा पाँच समय की नमाज करना तो कहा था, परंतु गाय आदि प्राणियों को बिस्मिल करने(मारने) को नहीं कहा। कुरआन में बाद में फरिस्ते का आदेश लिखा है, वह महापाप है।
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