बहुत से हमारे मुस्लिम भाईयों का कहना है कि यदि खुदा कबीर साहेब है तो आप संत (बाखबर) रामपाल जी महाराज की फोटो की इबादत क्यों करते हो।
रामपाल दास:- उनका उत्तर इस प्रकार दो:-
उत्तर:- पहले आप यह समझें कि पूजा तथा सत्कार में क्या भेद है:-
सुनो! जैसे पत्नी अपने पति के लिए समर्पित होती है। उसकी पूजा करती है। परंतु सत्कार यथोचित सबका करती है। सलाम सबको बोलती है। किसी को सत्कार देना पूजा में नहीं गिना जाता। जिस महापुरूष ने सच्चे खुदा की सच्ची राह बताई है, उसने मानव का महाउपकार किया है। उसका सत्कार करना हमारा फर्ज बनता है।
आप (मुसलमान) चार किताबों को तो सत्य मानते हैं:- 1) कुरआन 2) तौरेत 3) जबूर 4) इंजिल {बाईबल में तीन पुस्तक तौरेत, जबूर तथा इंजिल इकठ्ठी जिल्द की गई हैं। बाईबल कोई अलग ग्रंथ नहीं है।} आप जी ने बाईबल में सृष्टि रचना पढ़ी है जो तौरेत पुस्तक में लिखी है। उसमें वर्णन आता है कि परमेश्वर ने ’’आदम‘‘ को मिट्टी से उत्पन्न किया। फिर सब फरिस्तों को बुलाया तथा कहा कि ’’आदम‘‘ आदमी को सजदा करो। एक इबलिस नाम के फरिस्ते ने सजदा नहीं किया तथा कहा कि यह तो मिट्टी से बना आदमी है। मैं इसके आगे सिर नहीं झुकाऊँगा। बार-बार कहने पर भी उसने परमेश्वर का हुक्म नहीं माना तो उसे जन्नत से निकाल दिया। वह शैतान कहलाया। अन्य सब फरिस्तों ने परमेश्वर के हुक्म का पालन किया। वे जन्नत में सुखी हैं। हम कादर खुदा कबीर के हुक्म से संत रामपाल जी जो हमारे गुरू हैं, को दण्डवत प्रणाम करते हैं। उसी परमेश्वर (खुदा कबीर) का सूक्ष्मवेद (कलामे कबीर) में आदेश है जो इस प्रकार है:-
कबीर, गुरू गोबिंद कर जानियो, चलियो आज्ञा मांही।
मिले तो दण्डवत् बंदगी, नहीं पल-पल ध्यान लगाहीं।।
कबीर, गुरू मानुष कर जानते, ते नर कहिये अंध।
होवें दुःखी संसार में, आगे यम के फंद।।
अर्थात् अल्लाह कबीर सृष्टि रचनहार, पालनहार का आदेश है कि अपने गुरू जी को (गोबिन्द) खुदा मानना और उसकी आज्ञा का पालन करना। जब उनके दर्शन करने आश्रम में जाओ या वे मार्ग में मिल जाएँ तो अपने गुरू को दण्डवत् प्रणाम करो। बाकी समय में उनके अहसान को याद रखो। जो गुरू जी को मनुष्य मानते हैं, परमात्मा के तुल्य सम्मान नहीं देते हैं, वे तत्त्वज्ञान नेत्रहीन (अंधे) हैं। वे संसार में भी दुःखी रहेंगे। फिर यमराज के फंद यानि जहन्नम में गिरेंगे। गुरू जी का अहसान बताया है कि:-
कबीर, सतगुरू के उपदेश का सुनिया एक विचार।
जै सतगुरू मिलते नहीं तो जाते यम द्वार।।
कबीर, यमद्वार में दूत सब, करते खेंचातान।
उनसे कबहू ना छूटता, फिर फिरता चारों खान।।
कबीर, चार खानी में भ्रमता, कबहू ना लगता पार।
सो फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरू के उपकार।।
कबीर, सात समुद्र की मसि करूँ, लेखनी करूँ बनराय।
धरती का कागज करूँ, गुरू गुण लिखा न जाय।।
अर्थात् सतगुरू जी से दीक्षा लेने से क्या लाभ हुआ और यदि सतगुरू ना होता तो फिर क्या हानि होती, वह बताई है कि यदि सतगुरू जी नहीं मिलते तो दोजख की आग में जलते। यम के दूत पिटाई करते। फिर पशु-पक्षी, कीड़े आदि के जीवनों में कष्ट भोगते।
ये सब कष्ट सतगुरू जी के उपकार से समाप्त हो गए। ऐसे सच्चे पीर का गुण लिखने लगूँ तो सारे वृक्षों की कलम घिस जाए। यदि सात समुद्रों की जितनी मसि (ink) हो, वह समाप्त हो जाए और धरती जितने क्षेत्रफल का कागज लूँ, वह समाप्त हो जाए तो भी गुरू जी के उपकार का वर्णन नहीं हो सकता।
संत रामपाल दास जी हमारे सतगुरू (सच्चे पीर) हैं। उनका सत्कार सजदा करके करना उपरोक्त उपकार के कारण फर्ज बनता है।
गुरू जी को दंडवत् प्रणाम करने का कबीर खुदा (परमेश्वर) का आदेश (हुक्म) है। उसको पालन करना अनिवार्य है, नहीं तो शैतान की पदवी मिलेगी। आदेश का पालन करने से जन्नत मिलेगी। इसलिए हम अपने सतगुरू को दण्डवत् करते हैं।
मुसलमान भाई कहते हैं कि हमारे खुदा ने हजरत मुहम्मद जी पर कुरआन मजीद का ज्ञान उतारा। हम उस अल्लाह को सजदा (सिर झुकाकर जमीं पर रखकर सलाम) करते हैं। मुसलमान भाई विचारें कि कुरआन मजीद के ज्ञान दाता ने सूरः फुरकान-25 आयत नं. 52-59 में अपने से अन्य खुदा के विषय में बताया है कि जिसने सारी कायनात को पैदा किया। वह अपने भक्तों के पाप माफ करता है। उसी ने मानव पैदा किए। फिर किसी को दामाद, बहू बनाया। मीठा, खारा जल पृथ्वी में भिन्न-भिन्न भरा। वह छः दिन में सब रचना करके सातवें दिन तख्त पर जा बैठा। उसकी खबर किसी बाखबर (तत्त्वदर्शी संत) से पूछो। इससे स्पष्ट है कि कुरआन मजीद (शरीफ) का ज्ञान बताने वाला बाखबर नहीं है। मुसलमान भाई उस अल्प ज्ञान वाले को सिर झुकाकर सलाम (सजदा) करते हैं। यदि हम बाखबर संत रामपाल जी को सजदा (दण्डवत् करके) करते हैं तो इसमें क्या दोष है?
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