आदि सनातन पंथ में सनातन धर्म (वर्तमान के हिन्दू धर्म) के उपरोक्त धर्मग्रन्थों (चारों वेदों व गीता) वाली साधना (ऊपर बताई पाँचों यज्ञों) के साथ गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताए तीन मंत्रों (ओम् तत् सत्) का जाप भी करना होता है। जिस साधना से जन्म व मृत्यु का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाता है तथा सर्वश्रेष्ठ स्वर्ग (सतलोक) प्राप्त होता है। जहाँ पर जन्नत ही जन्नत है। जहन्नम (नरक) नहीं है। यह भक्ति बताने परमेश्वर (कादर अल्लाह) स्वयं पृथ्वी पर व काल लोक के अन्य लोकों में आता है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन मंत्र (ॐ (ओम्), तत् तथा सत्) हैं:-
मूल पाठ:- ॐ (ओम्), तत्, सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणाः तेन वेदा च यज्ञाः च विहिताः पुरा।।23।।
सरलार्थ:- गीता में कहा है कि ओम् (ॐ), तत्, सत्, यह (ब्रह्मणः) सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि समर्थ परमेश्वर सृष्टिकर्ता की साधना का तीन नाम का मंत्र है। (त्रिविद्यः स्मृतः) इसकी स्मरण की विधि तीन प्रकार से बताई है। सृष्टि के प्रारंभ में आदि सनातन पंथ के (ब्राह्मणाः) विद्वान साधक इसी आधार से साधना करते थे। यह मंत्र सूक्ष्मवेद में स्पष्ट लिखा है। गीता में ओम् स्पष्ट है, शेष दो सांकेतिक (code words में) हैं। {वास्तव में ‘‘ॐ’’ भी सांकेतिक है।‘‘ओम्’’ यह स्पष्ट नाम है। इसका सांकेतिक (code) ‘‘ॐ’’ है। काल ब्रह्म ने इसे अपनी साधना का बताया है। इसलिए ऋषियों ने इसको समझ लिया कि ‘‘ॐ’’ कोडवर्ड (सांकेतिक शब्द) ओम् नाम है।} सूक्ष्मवेद का ज्ञान स्वयं परमेश्वर जी ने बताया था। उसी सूक्ष्मवेद के अंदर लिखी साधना की सम्पूर्ण विधि के आधार से ब्राह्मण यानि साधक बने तथा उसी सूक्ष्मवेद के आधार से (यज्ञाः) धार्मिक अनुष्ठानों का विधान बना। चारों वेद उसी सूक्ष्मवेद का अंश (अधूरा ज्ञान) हैं। जो काल ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता, कुरआन व बाईबल के ज्ञान दाता) ने जान-बूझकर अधूरा (incomplete) दिया है ताकि सब मानव मेरे जाल में फँसे रहें। ऋषिजन चारों वेदों के अधूरे ज्ञान को सम्पूर्ण ज्ञान जानकर इसी अनुसार साधना करते थे। कोई भी काल जाल से बाहर नहीं हुआ। जन्म-मृत्यु का चक्र किसी का समाप्त नहीं हुआ। जिस कारण से ऋषियों (साधकों) ने घोर तप हठयोग करके करने प्रारंभ किए जिससे उनमें सिद्धियाँ प्रकट हो गई। उन सिद्धियों का प्रदर्शन करके प्रसिद्धि प्राप्त करके जनता में पूज्य बन गए। स्वर्ग, नरक, पशु-पक्षियों आदि चैरासी लाख प्रकार की योनियों में कष्ट उठा रहे हैं। जो सूक्ष्म वेद सृष्टि के प्रारंभ में बताया था, वह वर्षों तक चला। फिर लुप्त हो गया। कारण प्राकृतिक परिस्थितियाँ बनती हैं। फिर वेदों का ज्ञान भी प्रचलन में नहीं रहा। ऋषिजन भी वेदों वाली साधना त्यागकर हठ योग करके सिद्धियाँ प्राप्त करके एक-दूसरे से बढ़कर शक्ति दिखाने की होड़ (स्पर्धा) में लगे रहे क्योंकि वेदों वाली साधना से प्रभु प्राप्ति नहीं होती।
जिस प्रभु (काल ब्रह्म) को इष्ट मानकर ऋषि पूजा करते थे या वर्तमान में कर रहे हैं। उसने किसी को दर्शन न देने की प्रतिज्ञा कर रखी है (कसम खा रखी है)। इसलिए ऋषियों ने परमात्मा निराकार मान लिया, जबकि चारों वेदों में परमात्मा को साकार मनुष्य के समान स्वरूप (शरीर) वाला लिखा है। (पाठक इसी पुस्तक में वेदों के मंत्रों की फोटोकापी अध्याय ‘‘सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान किसने बताया’’ में देखें।) इसी प्रकार बाईबल तथा कुरआन मजीद में भी परमेश्वर को साकार मनुष्य जैसे स्वरूप (शरीर) वाला लिखा है। सब बाईबल व कुरआन पढ़ने वाले भी परमात्मा को (बेचून) निराकार मानते हैं। वे ग्रन्थों को ठीक से नहीं समझे हैं। काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने वेदों व गीता में तो अपनी साधना का नाम ओम् तो स्पष्ट बता दिया, परंतु पूर्ण ब्रह्म (कादर खुदा) की प्राप्ति वाला code words (सांकेतिक शब्दों) में ॐ, तत्, सत् लिखकर छोड़ दिया। {‘‘ॐ’’ यह अक्षर वास्तव में ‘‘ओम्’’ है। यहाँ पर (गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में) अस्पष्ट ‘‘ॐ’’ लिख दिया जबकि गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में स्पष्ट ओम् लिख दिया।} इसी (काल ब्रह्म) ने कुरआन की सूरः अश् शूरा-42 में आयत नं. 2 में भी तीनों शब्द सांकेतिक (code words) बताए हैं। कुरआन में अपना मंत्र भी सही नहीं बताया। वेदों में यह तो लिखा है कि यथार्थ भक्ति के नामों को जो सांकेतिक हैं, परम अक्षर ब्रह्म यानि कादर अल्लाह कबीर ही आविष्कार करके बताता है। उस कादर अल्लाह कबीर द्वारा बताए गुप्त नामों के यथार्थ मंत्र मुझ दास (रामपाल दास) के पास हैं। मेरे को इन तीनों नामों का ज्ञान करवाया है जो इस प्रकार हैं:-
‘‘अैन’’ यह अरबी भाषा की वर्णमाला का अक्षर है जो देवनागरी का ‘‘अ’’ है। ‘‘सीन’’ यह अरबी भाषा की वर्णमाला का अक्षर है जो देवनागरी का ‘‘स’’ है तथा ‘‘काफ’’ यह अरबी वर्णमाला का अक्षर है जो देवनागरी का ‘‘क’’ है। जैसे ओम् मंत्र का पहला अक्षर ‘‘अ’’ है। इसलिए ‘‘अैन’’ अक्षर ‘‘ओम्’’ का सांकेतिक है।
तत्:- यह सांकेतिक मंत्र गीता में लिखा है। इसके यथार्थ मंत्र का पहला अक्षर ‘‘स’’ है। इसलिए ‘‘सीन’’ अक्षर उसी की ओर संकेत करता है तथा जो तीसरा ‘‘सत्’’ मंत्र है, उस यथार्थ मंत्र का पहला अक्षर ‘‘क’’ है। इसलिए ‘‘काफ’’ अक्षर उसी की ओर संकेत है। वास्तव में ॐ भी सांकेतिक है। इसका यथार्थ मंत्र (नाम) ओम् है। परंतु ’’ॐ‘‘ अक्षर का ज्ञान भी कादर खुदा कबीर ने ऋषियों को सतयुग में सत सुकृत ऋषि के रूप में प्रकट होकर बताया था कि ’’ॐ‘‘ अक्षर ’’ओम्‘‘ है, इसी को ’’प्रणव‘‘ भी कहा जाता है।
कुरआन में सूरः अश् शूरा-42 आयत नं. 2 में अैन, सीन, काफ, गीता अध्याय 17 श्लोक 23 के ओम्, तत्, सत् वाले ही हैं। इस तीन नाम के मंत्र के जाप से सब पाप नाश हो जाते हैं। कर्म का दंड समाप्त हो जाता है। अकाल मृत्यु से बचाव होता है। रोग, सोग (चिंता) समाप्त हो जाते हैं। इनका जाप करने वाला मर्यादित भक्त इस काल के लोक में भी सुख का जीवन जीता है तथा मृत्यु के तुरंत बाद उस सर्वश्रेष्ठ स्वर्ग (सतलोक सुख सागर) में चला जाता है जहाँ नरक (जहन्नम) नहीं है। जहाँ वृद्धावस्था तथा मृत्यु नहीं आती। सदा सुखी रहता है। वहाँ सतलोक में ऐसी ही सृष्टि (संसार) है। यह नाशवान है, वह सतलोक अनिवाशी है।
विशेष:- जिन ऋषियों व अन्य साधकों ने सनातन धर्म वाली जो गीता व वेदों में वर्णित ऊपर बताई साधना की, वे ब्रह्मलोक (काल की बड़ी जन्नत) यानि महास्वर्ग में चले जाते हैं। जिन साधकों ने आदि शंकराचार्य द्वारा बताई श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी आदि पाँच देव की पूजा की तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा की, वे उन देवताओं के लोक में बनी जन्नत (स्वर्ग) में जाते हैं। फिर तुरंत नरक में जाते हैं। फिर पृथ्वी पर अन्य जन्म धारण करके दुःखी रहते हैं तथा पित्तर, भूत आदि का जीवन भी भोगते हैं। जो महास्वर्ग (ब्रह्म लोक) में चले जाते हैं, उनका मोक्ष समय अधिक तो है परंतु वहाँ से भी पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ता है। पित्तर, भूत आदि के जन्म, पशु-पक्षी व जीव-जंतुओं के जन्मों में भी कष्ट भोगते हैं। नरक में भी अवश्य जाते हैं।
जो भक्तजन बाईबल (तौरेत, जबूर तथा इंजिल) तथा कुरआन के ज्ञान तक सीमित हैं तथा इन पुस्तकों में बताई साधना करने वाले तो जन्नत में भी नहीं जा सकते।
उदाहरण:- बाबा आदम जी इनके सबसे ऊँचे नबी थे। जो साधना आदम जी ने की, वही इबादत हजरत आदम की संतान यानि हजरत आदम से अन्य हजरत मुहम्मद तक के अनुयाईयों तक कर रहे हैं। हजरत आदम जन्नत तथा जहन्नम यानि स्वर्ग तथा नरक के मध्य वाले स्थान पर बैठा था। वह स्थान पित्तर लोक कहा जाता है। नबी मुहम्मद जी ने आँखों देखा और बताया कि बाबा आदम जी कभी हँस रहे थे, कभी रो रहे थे। बैचेनी का जीवन जी रहे थे। इससे स्पष्ट है कि वह स्थान स्वर्ग (जन्नत) नहीं हो सकता, जहाँ सुख तथा दुःख दोनों हैं।
बात हजरत मुहम्मद (सल्ल.) से चली थी कि वे बाखबर नहीं हैं तो संत रामपाल जी महाराज जोकि एक गैर-मुस्लिम (दूसरे धर्म से संबंधित शख्स) हैं, किस प्रकार बाखबर साबित होते हैं?
अब मुसलमान भाई-बहन स्वयं जान लें कि संत रामपाल जी बाखबर हैं या नहीं। सच्चे नबी हैं या नहीं? हजरत आदम से हजरत मुहम्मद तक तथा सब ऋषि व देवता, श्री रामचन्द्र, श्री कृष्ण आदि किस-किस स्तर के नबी (संदेश वाहक) थे।
कादर कबीर खुदा द्वारा दिया ज्ञान उनके भेजे नबी गरीबदास जी महाराज जी ने इस प्रकार बताया है:-
अमर ग्रंथ से सुमरण के अंग की वाणी:-
गरीब, ऐसा अविगत राम है, आदि अंत नहीं कोई।
वार पार कीमत नहीं, अचल हिरंबर सोई।।1।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, कादर आप करीम।
मीरा मालिक मेहरबान, रमता राम रहीम।।5।।
गरीब, दोऊ दीन मधि एक है, अलह अलेख पिछान।
नाम निरंतर लीजिये, भगति हेत उर आन।।12।।
गरीब, राम रटत नहिं ढील कर, हरदम नाम उचार।
अमी महा रस पीजिये, योह तत बारं बार।।21।।
गरीब, कोटि गऊ जे दान दे, कोटि जग्य जोनार।
कोटि कूप तीरथ खने, मिटे नहीं जम मार।।22।।
गरीब, कोटिक तीरथ ब्रत करी, कोटि गज करी दान।
कोटि अश्व बिपरौ दिये, मिटै न खैंचा तान।।23।।
गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करे शरीर।
और ज्ञान मंडलीक है, चकवै ज्ञान कबीर।।38।।
गरीब, नाम बिना सूना नगर, पर्या सकल में सोर।
लूटन लूटी बंदगी, हो गया हंसा भोर।।99।।
गरीब, अगम निगम कूँ खोजि ले, बुद्धि विवेक विचार।
उदय अस्त का राज दै, तो बिना नाम बेगार।।100।।
गरीब, भगति बिना क्या होत है, भर्म रह्या संसार।
रति कंचन पाया नहीं, रावन चलती बार।।105।।
सुमरण के अंग की उपरोक्त वाणियों में संत गरीबदास जी ने बताया है कि खुदा की इबादत सतनाम यानि सच्चे भक्ति मंत्रों का जाप करना पूर्ण लाभ देता है। नाम का जाप न करके अन्य धार्मिक क्रियाएँ करना पूर्ण मोक्ष प्राप्ति का साधन नहीं है। अन्य आध्यात्मिक लाभ मिलता है।
भावार्थ:- वाणी (आयत) नं. 1, 5:- राम (खुदा) की कोई आदि यानि जन्म तथा (अन्त) मृत्यु नहीं है। उसका मूल्यांकन भी नहीं किया जा सकता कि वह कितना महान है। उसकी प्रत्येक गतिविधि व शक्ति अपरमपार यानि अथाह है। वह (कादर) समर्थ है, (करीम) दयावान है। वह स्वयं ही सब कार्य करता है। वह सबका मालिक (प्रभु) है। वह (रमता राम) सब जगह भ्रमण करने वाला (रहीम) दयालु परमेश्वर है।(1, 5)
वाणी नं. 12:- दोनों धर्मों (मुसलमान तथा हिन्दू धर्म) का एक ही प्रभु है। उसे राम कहो, चाहे रहीम खुदा कहो। उसके नाम का जाप सच्ची श्रद्धा के साथ करो।(12)
वाणी नं. 21:- (राम रटत) अल्लाह के नाम का जाप बिन देरी के जाप करना शुरू कर दे यानि पूर्ण गुरू (पीर) से दीक्षा लेकर उस सतनाम के दो अक्षरों का (हरदम) प्रत्येक श्वांस में जाप कर। यह भक्ति का रस पीओ यानि यह (तत्) निज (खास) साधना है, इसे बार-बार श्वांस के साथ कर।(21)
वाणी नं. 22:- जो कुरआन मजीद की सूरः अश् शूरा-42 आयत 2 में बताए ’’अैन. सीनकाफ.‘‘ सांकेतिक नामों के जो वास्तविक मंत्र हैं, उनका नाम जाप (स्मरण) नहीं किया तो चाहे कितना ही धर्म करो, उससे (जम मार) यमदूत का दंड समाप्त नहीं होगा यानि यमराज के पास जहन्नम में जाकर दंड भोगेगा। जैसे पुराणों में बताया है कि ब्राह्मण को दुधारू गाय दान करने से दानकर्ता को बहुत पुण्य मिलता है। उसको स्वर्ग में दूध पीने को मिलेगा। यदि राम (खुदा) का नाम जाप नहीं किया, फिर चाहे (कोटि) करोड़ गऊ (cow) दान कर देना, चाहे करोड़ों (जग जौनार) धर्म यज्ञ कर लेना, चाहे करोड़ों कूँए (पीने के पानी के लिए धर्मार्थ) खुदवा देना, चाहे करोड़ों तीर्थ के लिए तालाब खुदवा देना, चाहे करोड़ों (व्रत) रोजे रख, करोड़ों तीर्थों का भ्रमण कर, चाहे ब्राह्मणों को करोड़ हाथी, करोड़ घोड़े दान कर, इन सारे धार्मिक कार्यों से जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त नहीं हो सकता। नरक में भी जाना होगा। इन धार्मिक क्रियाओं का फल पृथ्वी पर भी मिलेगा। स्वर्ग में सुख कुछ समय मिलेगा, परंतु अन्य प्राणियों के शरीरों में भी कष्ट भोगना होगा। नरक (दोजख) की आग में भी जलना होगा।(22)
वाणी नं. 23:- वह तीन मंत्र वाला (राम) खुदा का नाम इतना निर्मल (पवित्र) है कि वह साधक के सब पाप काटकर निर्मल आत्मा कर देता है। अन्य अध्यात्म ज्ञान जो चारों वेदों, चारों कतेबों, अठारह पुराणों व गीता, भागवत (सुधा सागर) आदि में है, वह (मंडलीक) क्षेत्रीय ज्ञान है। अल्लाह कबीर जी द्वारा बताया अध्यात्म ज्ञान (चक्रवर्ती) सम्पूर्ण है। सब धर्मों के मानव के लिए है। किसी धर्म विशेष तक सीमित नहीं है। यह तीन नाम का जाप सब मानव को करने के लिए है। यज्ञ भी सबके लिए है।(23)
वाणी नं. 38:- वेदों, गीता, पुराणों तथा कुरआन व बाईबल में मण्डलीक (आंशिक) ज्ञान है। कबीर परमेश्वर द्वारा बोली अमरवाणी स्वस्मवेद में संपूर्ण अर्थात् चक्रवर्ती ज्ञान है। इसके लिए पढ़ें ’’सृष्टि रचना‘‘ जो इसी पुस्तक में पृष्ठ 263 पर है।
वाणी नं. 99:- यदि अन्य धार्मिक उपरोक्त क्रियाओं के साथ नाम (मंत्र) का जाप नहीं किया तो मानव शरीर (सूना) लावारिश है यानि उस जीव का परमात्मा साथी नहीं है। बिना नाम के जाप के व्यर्थ का शोर किया जा रहा है यानि अन्य जो बातें की जाती हैं, वह शोर व्यर्थ है। परमेश्वर के नाम के जाप की लूट नहीं की यानि बेसब्रा होकर भक्ति नहीं की। हे भक्त! (भोर) सवेरा हो गया यानि मृत्यु हो गई, संसार स्वपन मात्र था। स्वपन टूटने के पश्चात् कुछ पास नहीं रहता। इसी प्रकार भक्ति किए बिना मृत्यु हो गई तो पछताएगा।(99)
संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी द्वारा दिया यथार्थ आध्यात्म ज्ञान बताया है कि हे मानव! अगम (भविष्य का यानि आगे के जीवन का) निगम (दुःख रहित होने का) का विवेक वाली बुद्धि से विशेष विवेचन करके विचार कर। यदि मानव के पास सत्यनाम गुरू से प्राप्त नहीं है और उदय (जहाँ से पृथ्वी पर सवेरा होता है) अस्त (जहाँ सूरज छिपता है, शाम होती है, वहाँ तक) का राज्य यानि पूरी पृथ्वी का राज्य भी दे दिया जाए तो वह तो बेगार की तरह है।
सन् 1970 के आसपास पैट्रोल से चलने वाले बड़े तीन पहियों वाले टैम्पो (three wheeler tempo) चले थे। एक दिन एक टैम्पो वाला अपने मार्ग (route) पर नहीं आया। अगले दिन उससे पूछा कि कल क्यों नहीं आए तो उसने बताया कि कल बेगार में चला गया था। उस समय थानों में जीप आदि गाड़ियाँ नहीं होती थी। यदि पुलिस ने कहीं छापा (रैड) मारना होता तो किसी टैम्पो (three wheeler या four wheeler) को शाम को थाने में पकड़कर लाते। रात्रि में या दिन में जहाँ भी जाना होता, उसको ले जाते। मालिक ही ड्राईवर होता था या मालिक का किराए का ड्राईवर होता था। तेल (पैट्रोल) भी गाड़ी वाले अपने पास से डलवाते थे। सारी रात-सारा दिन उसको चलाते रहते थे। शाम को देर रात पुलिस वाले उसे छोड़ते थे। अन्य व्यक्ति देखता तो ऐसे लगता कि टैम्पो वाले ने आज तो घनी कमाई करी होगी यानि बहुत अधिक किराया प्राप्त किया होगा क्योंकि दिन-रात चला है, परंतु उस टैम्पो वाले ने बताया कि अपने पास से 200 रूपये (वर्तमान के दस हजार रूपये) तेल में और खाने में खर्च हो गए, किराया एक रूपया नहीं मिला। गाड़ी (टैम्पो) की घिसाई यानि चलने से हुई टूट-फूट, वह अलग खर्च हुआ। बेगार का अर्थ है कि आय बिल्कुल नहीं तथा परिश्रम अधिक होता है। खर्च भी अधिक होता है। इसको बेगार कहते हैं।
इसी प्रकार अपने पूर्व जन्म के तप तथा दान-धर्म से राजा बनता है। राजा बनने पर जो सुख-सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं, उनमें उस राजा के पुण्य खर्च होते हैं। यदि वह राजा पूरे गुरू से भक्ति के वास्तविक नाम लेकर भक्ति नहीं करता तो उसको पुण्य की कमाई नहीं होती। पुण्य का खर्च राज के ठाठ में दिन-रात समाप्त होता रहता है। जो सत्य भक्ति नहीं करता, वह राजा बेगार कर रहा है।(100)
श्रीलंका का राजा रावण था। उसने अपने महल स्वर्ण (gold) के बनवा रखे थे। वह देवता शिव (तमगुण) का पुजारी था। भक्ति के साथ-साथ गलतियाँ भी करता था। माँस खाता था, शराब भी पीता था। श्री रामचन्द्र जी जो श्री विष्णु जी देवता ही स्वयं अयोध्या में राजा दशरथ के घर जन्में थे, जब बनवास का समय व्यतीत कर रहे थे। उस समय रावण राजा श्री रामचन्द्र की पत्नी सीता जी का अपहरण कर ले गया। सीता जी को रावण से छुड़वाने के लिए श्री राम व रावण का युद्ध हुआ। युद्ध में रावण मारा गया। उस समय वह सोने के महलों में रहा करता। संसार से जाते वक्त एक (रति) ग्राम सोना साथ नहीं ले जा सका।
भावार्थ है कि इबादत करने वाले को सब बुराइयों से परहेज करना होता है, तब भक्ति में सफलता मिलती है। जो व्यक्ति भक्ति नहीं करते और धन उपार्जन में दिन-रात लगे हैं। बड़ी-बड़ी कोठी बना रखी हैं। कार ले रखी हैं। अंत समय भक्ति की कमाई (धन) साथ चलेगी। सांसारिक धन किसी काम नहीं आएगा। यदि आपके पास धन है, उसमें से धर्म भी करो, नाम का स्मरण भी करो।(105)
कादर अल्लाह कबीर जी के नबी संत गरीबदास जी ने दोनों धर्मों (इस्लाम और हिन्दू धर्म) की भक्ति की त्रुटियाँ बताई हैं:-
संत गरीबदास जी के अमर ग्रंथ से राग काफी से शब्द नं. 1:-
नहीं हैं दारमदारा उहां तौ नहीं है दारमदारा।।टेक।। उस दरगह में धर्मराय है, लेखा लेगा सारा।।1।। मुल्लां कूकैं बंग सुनावैं, ना बहरा करतारा।।2।। तीसौ। रोजे खूंन करत हो, क्यौं करि ह्नै दीदारा।।3।। मूल गंवाय चले हो काजी, भरिया घोर अंघारा।।4।। भौजल बूड़ि गये हो भाई, कीजैगा मुंह कारा।।5।। बेद पढैं पर भेद न जानैं, बांचैं पुरान अठारा।।6।। जड़ कूं अंधरा पान खवावै, बिसरे सिरजनहारा।।7।। ऊजड़ खेड़ै बहुत बसाये, बकरा झोटा मारा।।8।। जा कूं तौ तु मुक्ति कहत हो, सो हैं कच्चे बारा।।9।। मांस मछरिया खाते पांडे, किस बिधि रहै आचारा।।10।। स्यौं जजमांनें नरकें चाले, बूड़े स्यूं परिवारा।।11।। छाती तोरि हनें जम किंकर, लाग्या जम का लारा।।12।। दास गरीब कहै बे काजी, ना कहीं वार न पारा।।13।।1।।
सरलार्थ:- धर्मराय (परमात्मा के न्यायधीश) के दरबार में किसी का (दारमदारा) विशेष अधिकार नहीं है यानि किसी की सिफारिश नहीं चलती। केवल कर्म के फल पर सब निर्णय होता है। सारे जीवन के सब पुण्य तथा पाप कर्मों का लेखा लिया जाएगा। मुसलमान तथा हिन्दू दोनों धर्म ही साधना गलत करते हैं। मुल्ला मस्जिद में ऊपर चढ़कर जोर-जोर से बंग (अजान) लगाता है। परमात्मा की स्तूति करता है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि करतार जो मन की बात भी सुनता है, यदि चींटी के पैर में पायल बांध दी जाये यानि उस पायल की झनकार हो तो उसकी आवाज को भी परमात्मा (अल्लाह) सुनता है। वह बहरा नहीं है अर्थात् ऊँची आवाज लगाकर स्तुति न करो। मन लगाकर सामान्य आवाज से स्तुति करो। रमजान के महीने में मुसलमान तीस दिन व्रत रखते हैं। सारा दिन पानी भी नहीं पीते। शाम को भोजन में मुर्गी, बकरी, बकरा आदि को मारकर उसका माँस खाते हैं। कैसे परमात्मा का (दीदार) दर्शन हो सकता है?
हे काजी! मूल धन यानि मानव जन्म की श्वांस पूंजी को नष्ट करके संसार त्यागकर घोर (अंघारा) पाप करके पापों का थैला भरकर चल दिये हो। खुदा के घर जब कर्मों का हिसाब होगा, तब तुम्हारा मुँह काला किया जाएगा यानि नरक (जहन्नम) में डाला जाएगा। हिन्दू पंडितों से कहा है कि तुम वेदों को पढ़ते हो, उनके अर्थ ठीक से समझे नहीं हो। अठारह पुराण पढ़ते हो, उनको भी ठीक से नहंीं समझे हो। अंधा यानि तत्त्वज्ञान नेत्रहीन पंडित वेदों को पढ़ता है, पत्थर की मूर्ति की पूजा करता है। बेल के पत्ते, तुलसी के पत्ते, पत्थर की मूर्ति पर चढ़ाता है, सृजनहार को भूल गया है। वेदों में कहीं नहीं लिखा है कि मूर्ति की पूजा करो। उज्जड़ खेड़ों (गाँव जो नष्ट हो चुके हैं, उनका खंडहर बना है, उनको खेड़ा कहते हैं।) पर उनमें रहने वाली प्रेतात्माओं को शांत करने के लिए झोटे व बकरे काटते हैं, यह महापाप है। जिसे तुम मुक्ति की साधना कहते हो, वह तो पूर्ण रूप से व्यर्थ है जैसे चैपड़ के खेल में कच्चे बारह की कोई कीमत नहीं होती। पांडे मछली का माँस खाते हैं। ऊपर से स्नान करके तिलक लगाकर पवित्र बनकर दिखाते हो। परमात्मा कैसे प्रसन्न होगा? यजमान (जजमान) सहित नरक में जाओगे। अपने परिवार को भी नरक में लेकर जाओगे। यम के दूत बारह करोड़ हैं। (लारा लगा है) पूरी सेना की तरह पंक्ति में चलते हैं। तुम्हारी छाती तोडे़ंगे यानि वे बेरहमी से पीटेंगे। संत गरीबदास जी ने कहा है कि हे काजी! व पंडित! परमेश्वर (खुदा) की शक्ति असीम है। सत्य भक्ति करके अपना जन्म सुधारो।
क्या गावै घर दूरि दिवांनें क्या गावै घर दूरि।।टेक।। अनलहक्क सरे कूं पौंहचीं, सूली चढे मनसूर।।1।। शेख फरीद कूयें में लटके हो गये चूरम चूर।।2।। सुलतानी तजि गये बलख कूं, छाड़ी सोलह सहंसर हूर।।3।। गोपीचंद भरथरी जोगी, सिर में डारी धूर।।4।। दादू दास सदा मतवारे, झिलिमिलि झिलिमिलि नूर।।5।। जन रैदास कबीर कमाला, सनमुख मिले हजूर।।6।। दोन्यौं दीन मुक्ति कूं चाहैं, खांहि गऊ और सूर।।7।। दास गरीब उधार नहीं है, सौदा पूरमपूर।।8।।2।।
सरलार्थ:- शब्द तथा साखी, चैपाई आदि वाणी को मधुर आवाज में गाने मात्र से बात नहीं बनेगी। उनके अनुसार साधना व धर्म-कर्म करने से मोक्ष मिलेगा। गाने वालों से मोक्ष का घर बहुत दूर है। परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मंशूर अली ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी। अनलहक की पुकार (सरे) परमात्मा के दरबार में पहुँची थी। मंशूर को मार दिया गया था। सच्ची लगने से समर्पित होकर भक्ति करता था, पुनः जीवित हो गया था। यह मुसलमान धर्म से था। {मंशूर अली की सम्पूर्ण कथा इसी पुस्तक के पृष्ठ 250 पर लिखी है।} मुसलमान धर्म से शेख फरीद भक्त थे जो परमात्मा की प्राप्ति के लिए कुँए में लटके थे। इतने दुर्बल हो गए थे कि शरीर का अस्थिपिंजर शेष था। कौवों ने मृत जानकर उसके (माथे) भाल पर बैठकर आँखें निकालकर खानी चाही। तब शेख फरीद बोला कि हे कौवो! मेरे शरीर का माँस खा लो। मेरी आँखों को छोड़ दो। मैं खुदा को देखना चाहता हूँ। अब्राहिम अधम सुल्तान भी मुसलमान राजा था। परमात्मा प्राप्ति के लिए बलख शहर अपनी राजधानी त्याग दी। सोलह हजार (पदमनी) सुंदर नौ जवान स्त्रिायाँ त्याग दी थी। {सुल्तान इब्राहिम इब्न अधम की सम्पूर्ण कथा इसी पुस्तक के पृष्ठ 221 पर लिखी है।} गोपीचंद तथा भरथरी दोनों राजा थे। वे भी राज त्यागकर नाथ परंपरा से गोरखनाथ से दीक्षित होकर शरीर पर राख लगाकर रहा करते थे। संत दादू दास, संत रविदास, भक्त कमाल आदि कबीर परमात्मा से मिले थे। दीक्षा ली थी। पापों से बचे रहे। संत गरीबदास जी ने कहा है कि दोनों धर्मों के व्यक्ति मुक्ति की इच्छा करते हैं, जीव हिंसा करते हैं। हिन्दू सूअर का माँस खाते हैं, गाय का माँस खाना पाप मानते हैं। मुसलमान गाय का माँस खाते हैं, सूअर का माँस खाना हराम मानते हैं। सच्चे दरबार में उधार नहीं चलता। पूरा-पूरा नकद सौदा चलता है यानि जैसा कर्म किया, वैसा फल अवश्य मिलेगा। किसी भी प्राणी को मारना, उसका माँस खाना महापाप है। जब तक पूर्ण संत जो कबीर सतपुरूष की साधना बताता है, उससे दीक्षा नहीं लेता, तब तक जैसे कर्म करेगा, उनका फल भोगना पड़ेगा। सतपुरूष की भक्ति से पाप नाश हो जाते हैं। साधक सत्य साधना करके सतलोक चला जाता है।
मैंड़ी जिंदड़िये वो रब दा पंथ विषम है बाट।।टेक।। गगन मंडल में महल साहिब का, अंदरि बन्या झरोखा। एक मुल्लां महजिद में कूकै, एक पुकारै बोका।।1।। इनमें कौंन सरे कूं पौंहच्या, हमें लग्या है धोखा। दोन्यौं अदला बदला खेलैं, नहीं मुक्ति नहीं मोखा।।2।। कलमा रोजा बंग निवाजा, नबी महमंद कीन्हां। कदि महंमद ने मुरगी मारी, करद गलै कदि दीन्हा।।3।। मुरगी बकरी चिड़ी बुटेरी, सोई गऊ गल सीनां। जिन कूं भिसत कहां बे काजी, गूंदै सीक भरीनां।।4।। उस दरगह में छुरी न घड़िये, करद कहां से ल्याया। गूदा राता गोसत ताता, केसर रंग बनाया।।5।। घालि देगचै बिसमिल कीन्हां, सरस निवाला खाया। जा हंसा का खोज बतावौ, कौन सरै पौंहचाया।।6।। खण्ड पिण्ड ब्रह्मण्ड न होते, ना थे गाय कसाई। आदम हवा न हुजरा होता, कलमां बंग न भाई।।7।। उनि कादर नहीं कुदरति सिरजी, जब क्या खांना खाई। दास गरीब कहै बे काजी, अल्लह कबीर चित लाई।।8।।47।।
सरलार्थ:- हे मेरी जिन्दगी! यानि हे मेरी आत्मा! अर्थात् हे मानव! परमात्मा का मार्ग कठिन सफर (बाट) है। आकाश खंड में सतलोक में परमेश्वर का महल है। उसके अंदर (झरोखा है) जंगला लगा है जिसके अंदर से परमेश्वर सब देखता है। काजी एक (बोक) बड़े बकरे का चाकू से गला काट रहा है। बकरा दर्द के कारण चिल्ला रहा है। एक मुल्ला (मुसलमान धर्म का कर्मकांडी गुरू) मस्जिद में ऊपर चढ़कर चिल्ला रहा है यानि जीव मारने वाला यदि भक्ति भी करता है तो उसकी स्तुति व्यर्थ की बातें हैं यानि जैसे बकरा मरते समय भय व दर्द से मैं-मैं कर रहा है जिसका कोई अर्थ नहीं, मारने वाला मारकर ही दम लेगा। इसी प्रकार उस माँस खाने वाले काजी की स्तुति (अजान) है, उसका कोई लाभ नहीं है। पाप का दंड मिलकर रहेगा। संत गरीबदास जी ने स्पष्ट किया है कि इन बोक तथा मुल्ला व काजी में से कोई स्वर्ग भी नहीं जाएगा। ये तो अदला-बदला खेल रहे हैं। आज काजी बकरे की गर्दन काटकर मार रहा है। किसी जन्म में काजी की आत्मा बकरा बनेगी। बकरे की आत्मा काजी बनेगी, तब अपना बदला लेगी। नबी मोहम्मद ने कलमा (अल्लाहू अकबर मंत्र का जाप) तथा रोजा (व्रत) किया था। नमाज तथा (बंग) ऊँची आवाज लगाना जिसे अजान कहते हैं, की थी। मुर्गी, बकरी, गाय आदि को नहीं मारा। कोई जीव हिंसा नहीं की। हे काजी! जो दूसरे का गला काटता है, माँस खाता है। उसको स्वर्ग कहाँ से मिलेगा? परमात्मा का बनाया जीव क्यों मार डाला? घोर पाप किया है। जिस समय कुछ भी रचना नहीं थी। उस समय केवल पूर्ण परमात्मा रहता था। तब ये कर्म करने वाले कहाँ थे? क्या खाते थे? संत गरीबदास जी ने कहा है कि हे काजी! कबीर परमेश्वर (अल्लाह अकबीर) में चित्त लगा।
नबी (संत) गरीबदास जी ने समर्थ परमेश्वर (कादर खुदा) कबीर जी की समर्थता बताई हैः-
खांन पांन कछु करदा नाहीं, है महबूब अचारी वो।।टेक।। कौंम छतीस रीत सब दुनियां, सब सें रहैं बिचारी वो।।1।। बेपरवाह शाहन पति शाहं, जिनि याह धारनि धारी वो।।2।। अनतोल्या अनमोल्या देवै, करोड़ी लाख हजारी वो।।3।। अरब खरब और लील पदम लग, संखौं संख भंडारी वो।।4।। जो सेवै ताही कूं खेवै, भौजल पारि उतारी वो।।5।। सुरति निरति गल बंधन डोरी, पावै बिरह अजारी वो।।6।। ब्रह्मा बिष्णु महेश सरीखे, ताहि उठावैं झारी वो।।7।। शेष सहंसमुख करैं बिनती, हरदम बारंबारी वो।।8।। शब्द अतीत अनाहद पद है, है पुरूष निरधारी वो।।9।। छूछिम रूप सरूप समाना, खेलै अधिर अधारी वो।।10।। जाकुं कहें कबीर जुलाहा,रचि सकल सन्सारी वो।।1।। गरीबदास शरणागति आये, साहिब लटक बिहारी वो।।12।।24।।
सरलार्थ:- अकह लोक में परमात्मा बिना खाये-पीये वर्षों रहता है। प्रिय परमात्मा है। साधकों को अनतोला, अनमोला अथाह धन देता है। लाख, करोड़ रूपये देता है। परमात्मा के अरब, खरब, नील, पदम, संखों भंडार भरे हैं। जो (सेवै) पूजा करता है, उसी को पार उतारता है। समर्थ परमेश्वर कबीर जी के सामने ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव उसके सेवक हैं। शेष नाग बारम्बार हजार मुख से नाम जाप करता है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि जिसको कबीर जुलाहा कहते हैं, उसने सारी सृष्टि की उत्पत्ति की थी। हे पूर्ण ब्रह्म! (लटक बिहारी) सब ब्रह्मण्डों में बिना रोक-टोक के भ्रमण करने वाले कबीर जी! हम तो आपकी शरण आए हैं।
अविगत राम कबीर हैं, चकवै अविनाशी। ब्रह्मा विष्णु वजीर हैं, शिव करत खवासी।।टेक।। इन्द्र कोटि अनंत हैं, जाकै प्रतिहारा। बरन कुमेरं धर्मराय, ठाढे दरबारा।।1।। तेतीस कोटि देवता, ऋषि सहंस अठासी। वैष्णव कोटि अनंत हैं, गुण गावैं राशी।।2।। नौ जोगेश्वर नाद भरि, सुर पूरै संखा। सनकादिक संगीत हैं, अबिचल गढ बंका।।3।। शेष गणेश रु सरस्वती, और लक्ष्मी राजैं। सावित्री गौरा रटैं, गण संख बिराजैं।।4।। अनंत कोटि मुनि साध हैं, गण गंधर्व ज्ञानी। अरपैं पिंड रु प्राण कूं, जहां संखौं दानी।।5।। सावंत शूर अनंत हैं, कुछ गिणती नाहीं। जती सती और शीलवंत, लीला गुण गाहीं।।6।। चंद्र सूर बिनती करैं, तारा गण गाढे। पांच तत्व हाजिर खड़े, हुकमी दर ठाढे।।7।। तीर्थ कोटि अनंत हैं, और नदी बिहंगा। ठारा भार तो कूं रटै, जल पवन तरंगा।।8।। अष्ट कुली परबत रटैं, धर अंबर ध्याना। महताब अगनि तो कूं जपैं, साहिब रहमाना।।9।। अर्स कुर्स पर सेज है, तन तबक तिराजी। एक पलक में करत हैं, सो राज बिराजी।।10।। अलख बिनानी कबीर कूं, रंग खूब चवाया। एक पानी की बूंद से, संसार बनाया।।11।। अनंत कोटि ब्रह्मण्ड हैं, कछू वार न पारा। लख चैरासी खान का, तूं सिरजनहारा।।12।। सूक्ष्म रूप स्वरूपहै, बौह रंग बिनानी। गरीबदास के मुकट में, हाजिर प्रवानी।।13।।21।।
सरलार्थ:- (अविगत) दिव्य परम पुरूष कबीर जी हैं। (चकवै) चक्रवर्ती {चक्रवर्ती राजा उसे कहते हैं जिसका राज्य पूरी पृथ्वी पर होता था जो सब छोटे राजाओं का मालिक महाराजा होता था। कबीर सतपुरूष का राज्य सम्पूर्ण लोकों पर जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ज्योति निरंजन तथा अक्षर पुरूष सहित सब छोटे देवों का मालिक महाराजा यानि महादेव है।} परमात्मा हैं, अविनाशी हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी इनकी (खवासी) गुलामी करते हैं। इन्द्र तथा तेतीस करोड़ देवता, अठासी हजार ऋषि, नौ योगेश्वर, सनकादिक चारों, शेषनाग, गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, पार्बती, शंखों गण, सब उसी के आदेश से चलते हैं। सबके ऊपर कबीर परमेश्वर का राज है। कबीर जी ने जल की बूंद से मानव शरीर कितना संुदर बना रखा है। असँख्यों ब्रह्मण्डों को तथा चैरासी लाख प्रकार के जीवों को उत्पन्न करने वाले आप कबीर जी ही हैं। सबका सृजनहार है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि अनेकों रूपों में लीला करने वाला परमेश्वर मेरे सिर पर विराजमान है।
गरीब, पंजा दस्त कबीर का, सिर पर राखो हंस।
जम किंकर चंपै नहीं, उधरि जात है बंस।।1।।
गरीब, दर्दबंद दरवेश है, सतगुरु पुरुष कबीर।
नाम लिये बंधि छूटि है, टूटैं जम जंजीर।।2।।
आदि सनातन पंथ यानि यथार्थ कबीर पंथ में पूजा
गरीब, सतगुरु पुरुष कबीर हैं, तीन लोक तत सार।
कोटि उनचा पृथ्वी, चैदा भुवन आधार।।3।।
गरीब, सतगुरु पुरुष कबीर हैं, तीन लोक तत सार।
दोई चार की क्या चलै, उधरे हंस अपार।।4।।
गरीब, सतगुरु पुरुष कबीर हैं, चारों युग प्रवान।
झूठे गुरुवा मरि गये, हो गये भूत मशान।।5।।
गरीब, झूठे गुरु के आसरै, कदे न उधरै जीव।
साचा पुरुष कबीर है, आदि परम गुरु पीव।।6।।
गरीब, सतगुरु पुरुष कबीर का, विषम पंथ बैराट।
शिव सनकादिक धावहीं, मुनि जन जोवैं बाट।।7।।
गरीब, सतगुरु पुरुष कबीर की, कोई न चलि है गैल।
बिना पंथ पग धरत है, गगन मंडल में सैल।।8।।
गरीब, पग सेती दुनियां चलै, पंछी परौं उड़ान।
ऊंचा महल कबीर का, जहां नहीं जिमी असमान।।9।।
गरीब, नीम मंडेरन महल के, नहीं घाट नहीं बाट।
ऊंचा तख्त कबीर का, कैसे कीजैं सांट।।10।।
गरीब, संख स्वर्ग पर सैल है, संख स्वर्ग पर धाम।
ऐसा अचरज देखिया, बिना नीम का गाम।।11।।
गरीब, बिना नीम के नगर में, बसते पुरुष कबीर।
शिव ब्रह्मादिक थकत हैं, कौन धरैं जहां धीर।।12।।
गरीब, लख लख योजन उड़त है, सुर नर मुनि जन संत।
ऊंचा धाम कबीर का, कोई न पावै अंत।।13।।
सरलार्थ:- हे साधक! परमात्मा कबीर जी का कृपा पात्र बने रहना यानि कबीर जी की शरण में रहना। (जम किंकर) यम के दूत तेरे को नहीं पकड़ेंगे। तेरे कुल का उद्धार हो जाएगा।(1)
सतगुरू कबीर (पुरूष) परमेश्वर (दर्दबंद) दुःख निवारण करने वाले हैं। कबीर जी द्वारा बताए नाम का जाप करने से काल के द्वारा लगाए कर्म बंधन छूट जाते हैं। यमराज के द्वारा बाँधा गया बँधन (जंजीर) लोहे की हथकड़ी टूट जाती है।(2)
सतगुरू कबीर परमेश्वर तीन लोक (काल ब्रह्म का लोक, अक्षर पुरूष का लोक तथा सतपुरूष का लोक जो चार लोकों का क्षेत्र है। इन तीन लोकों का यहाँ पर वर्णन है।) का (तत सार) सर्वेस्वा यानि कुल के मालिक हैं। उनचास (49) करोड़ पृथ्वियों तथा चैदह भुवनों (जो एक ब्रह्मण्ड में हैं) इन सबका आधार है। दो या चार की तो बात क्या है? कबीर खुदा तो अनंतों हंस (भक्त) पार कर देते हैं।(3-4)
(सतगुरू) तत्त्वदर्शी संत रूप में प्रकट कबीर (पुरूष) परमेश्वर जी चारों युगों (सतयुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग तथा कलयुग) में सशरीर सतगुरू बनकर यानि अपना नबी आप बनकर सतलोक से आए हैं। यह प्रमाण है। झूठे गुरूजन मर गए। उनकी साधना गलत थी जो शास्त्रा प्रमाणित नहीं थी। वे प्रेत योनि को प्राप्त हुए।
प्रमाण:- सतगुरू रूप में परमात्मा कबीर जी चारों युगों में सशरीर सतलोक से आए थे तथा सशरीर गए थे।
सतयुग में उनका नाम सत सुकृत था।
त्रेतायुग में मुनीन्द्र नाम था।
द्वापर में करूणामय नाम था।
कलयुग में कबीर नाम है।
झूठे गुरू की शरण में जीव का कभी उद्धार नहीं होगा। सच्चा परम गुरू (पीव) मालिक कबीर परमेश्वर है।(6)
सतगुरू कबीर परमेश्वर जी द्वारा बताया सच्चा भक्ति मार्ग (विषम) दुर्गम तथा विशाल है। श्री शिवजी तथा सनक, सनंदन, सनातन तथा संत कुमार (सनकादिक) तथा ऋषि-मुनि भी भक्ति मार्ग के (बाट) सफर पर चल रहे हैं। परंतु धोखे में काल वाले मार्ग को सतलोक वाला मार्ग मानकर चल रहे हैं। जीवन व्यर्थ हो जाएगा।(7)
सतगुरू कबीर परमेश्वर जी के (गैल) गलि यानि मार्ग पर कोई नहीं चल रहा। सतगुरू कबीर जी तो बिना (पंथ) मार्ग के चलते हैं यानि विहंगम मार्ग (पक्षी की तरह उड़कर चलना) से चलते हैं। वे पपील (चींटी) मार्ग से नहीं चलते। परमात्मा कबीर जी का (महल) सतलोक घर ऊँचा है, बहुत ऊपर है जहाँ पर नाशवान जमीन व आकाश नहीं है। वह अविनाशी धरती है। परमात्मा का महल दिव्य है। उसकी सांट यानि उसको प्राप्त करने का सौदा कैसे किया जाए? कौन-सी विधि है जिससे सतलोक प्राप्त होता है?(8-10)
सतलोक का सुख काल ब्रह्म के लोक के संखों स्वर्गों से अधिक है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सतलोक में मकान बिना नींव (foundation) के बने हैं। जैसे जिस स्थान पर पृथ्वी तथा चाँद का गुरूत्व आकर्षण शून्य हो जाता है, वहाँ पर जो भी वस्तु रख दी जाती है, वह वहीं पर लटक जाती है। स्थिर रहती है। इसी प्रकार सतलोक में परमात्मा की सिद्धि-शक्ति से सब दीवारें, छत रूकी हैं।(11)
बिना नींव के नगर सतलोक में बने गुबंद में सतगुरू कबीर जी रहते हैं। उस स्थान को प्राप्त करने का प्रयत्न कर-करके शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु भी थक गए हैं। फिर अन्य साधक कौन है जो उस सत्यलोक की प्राप्ति के लिए साधना करेगा। कारण यह रहा है कि उनकी साधना सूक्ष्मवेद (तत्त्वज्ञान) के अनुसार नहीं है।(12)
वेदों में वर्णित अधूरी साधना करते हुए मुनिजन (मननशील व्यक्ति माने जाते हैं, वे), ऋषिजन तथा काल ब्रह्म के संत-भक्त लाख-लाख योजन (एक योजन 12 किलोमीटर के समान है) आकाश में सिद्धि से उड़ जाते थे। उनको सतलोक नहीं मिला क्योंकि सतलोक तो काल ब्रह्म के लोक से सोलह शंख कोस (एक कोस तीन किलोमीटर के समान है) ऊँचाई पर है।(13)
गरीब, जैसैं अलल आकाश कूं, रापति चरण लगाय।
ऐसे हरिजन हंस कूं, लै चालत है ताहि।।16।।
गरीब, नाम निंरतर संगर सरू, फरकैं धजा निशान।
अनहद बाजे बाजही, सतगुरु आंब दिवान।।17।।
गरीब, सतनाम के जाप से, बाजैं अनहद नाद।
तोबा परमेश्वर कबीर की, छूटैं सबही उपाद।।18।।
गरीब, धर्मराय दरबार में, दई कबीर तलाक।
भूले चूके हंस कूं, पकरो मत कजाक।।19।।
गरीब, बोलै पुरुष कबीर सैं, धर्मराय कर जोरि।
तुमरे हंस न चंपि हूं, दोही लाख करोरि।।20।।
गरीब, मद्यहारी जारी नरा, भांग तमाखू खांहि।
परदारा पर घर तकै, जिन कूं ल्यौं अक नांहि।।21।।
गरीब, धर्मराय बिनती करै, सुनियौं पुरुष कबीर।
जिन कूं निश्चय पकरि हूं, जड़िहौं तौंक जंजीर।।22।।
गरीब, चूंबक रूपी शब्द है, लोहे रूपी जीव।
परदे मांही भेटि हूं, दरश परस होय पीव।।23।।
गरीब, चूंबक हमरा रूप है, लोहे रूपी प्राण।
धर्मराय तेरी बंध मांहि सैं, हम ले उड़ें अचांन।।24।।
गरीब, जा घट नौबत नाम की, जाकूं पकरै कौंन।
खाली कूं छोडूं नहीं, रीति जिन की जौंन।।25।।
गरीब, कर जोरैं बंदगी करैं, चैदा मुनि दिवान।
सो तौ मरकब कीजिये, भक्ति बिना विधान।।26।।
गरीब, कर्मौं सेती रत थे, अब हैं जो शरण् कबीर।
जिन कूं निश्चय मारिहौं, काढौं बल तकसीर।।27।।
गरीब पहले किये वो बख्स हूँ, आगे करे न कोई।
कबीर कह धर्मराय सौ, नाम रटैं मम सोई।।28।।
गरीब, कर्म भर्म ब्रह्मंड के, पल में करि हूं नेश।
जिन हमरी दोही दई, सो करौ हमारी पेश।।29।।
गरीब, शिब मंडल ब्रह्मा पुरी, जो बिष्णु लोक में होय।
हमरे गुण भूलै नहीं, तो आंनि छुटाऊं तोहि।।30।।
गरीब, कोटि बहतरि उर्बशी, धर्मराय की धीव।
सुर नर मुनि जन मोहिया, बिसरि जात हैं पीव।।31।।
गरीब, पीव कौं हंसा बिसरिहीं, हमरै तुम्हरै नांहि।
धर्मराय कहैं कबीर से, जिन कूं बहू विद्यी खांहि।।32।।
गरीब, साहिब पुरुष कबीर हैं, योनि परे सो जीव।
लख चैरासी भर्मही, काल जाल घट सीव।।33।।
गरीब, साहिब पुरुष कबीर कूं, जन्म लिया नहीं कोय।
शब्द स्वरूपी रूप है, घट घट बोलै सोय।।34।।
गरीब, अनंत कोटि अवतार हैं, माया के गोविंद।
कर्ता होय होय अवतरैं, बहुरि परैं जग फंद।।35।।
गरीब, त्रिलोकी का राज है, ब्रह्मा विष्णु महेश।
ऊंचा धाम कबीर का, सतलोक परदेश।।36।।
सरलार्थ:- परमात्मा अपने साधक को सत्यलोक में ऐसे लेकर उड़ जाता है जैसे अलल (अनल) पक्षी (रापति) हाथी को उठा ले जाता है।(16)
जो साधक तत्त्वज्ञानी गुरू यानि सतगुरू से सतनाम व सारनाम की दीक्षा लेकर नाम का जाप करता है तो उसके शरीर में सिर के अंदर सतलोक के बाजे (संगीत की ध्वनि) सुनाई देती है। उस ऊपर के संगीत को सुनकर उसकी ओर आकर्षण इतना बन जाता है कि साधक काल लोक के गाने-बजाने, नाचने व धन संग्रह करने में हेराफेरी आदि सब उत्पात त्याग देता है।(17-18)
जिस समय मार्च सन् 1727 (विक्रमी संवत् 1784) फाल्गुन महीने की शुक्ल पक्ष द्वादशी को परमात्मा कबीर जी सतलोक से सशरीर पृथ्वी पर गाँव छुड़ानी जिला इज्जर, हरियाणा (भारत) में संत गरीबदास जी को बाबा जिंदा के वेश में जंगल में मिले थे। उस समय संत गरीबदास जी की आयु दस वर्ष थी। संत गरीबदास की आत्मा को शरीर से निकालकर ऊपर धर्मराय (काल ब्रह्म का न्यायधीश) के कार्यालय (दरबार) में लेकर गए। अपनी समर्थता दिखाने अपना गवाह बनाने के लिए बालक गरीबदास के सामने काल ब्रह्म के न्यायधीश यानि धर्मराय से कबीर जी ने कहा कि हे कजाक यानि शैतान! मेरे (कबीर जी के) भक्त को मत पकड़ना।(19)
धर्मराय ने निवेदन किया:-
धर्मराज हाथ जोड़कर परमात्मा कबीर जी से बोले कि मुझे लाख दुहाई है, मैं आपके हंस (भक्त) को नहीं पकडूँगा।(20)
परंतु जो (मद्यहारी) शराब सेवन करते हैं। (जारी नरा) जो पुरूष व्यभिचार करते हैं। भांग तथा तम्बाकू का सेवन करते हैं। (परदारा) दूसरे की पत्नी को (तकै) बुरी नजर से देखते हैं। उनको पकड़ूँ या नहीं?(21)
धर्मराज ने निवेदन किया कि हे कबीर (पुरूष) परमात्मा मेरी विनती सुनो! यहाँ का नियम है कि जो उपरोक्त अपराध करते हैं, उनको निश्चय ही जंजीरों से बाँधूंगा।(22)
परमात्मा कबीर जी ने आदेश किया यानि कहा कि:-
मेरा सारशब्द (सारनाम) चुंबक के समान है तथा मेरा हंस (भक्त) लोहे के तुल्य है। मैं पर्दे में यानि गुप्त रूप में अपने भक्त से मिलूँगा। वह अपने (पीव) पति परमेश्वर का दर्शन व (परस) चरण छूकर स्पर्श कर लेगा। वह मेरी आत्मा हो जाएगा। हे धर्मराय! उस अपने भक्त/भक्तमति आत्मा को तेरी बंध (कैद) से अचानक उठा ले जाऊँगा।(23-24)
धर्मराय बोला:- जिस भक्त के पास आपकी दीक्षा का नाम मंत्र है, उसे कौन पकड़ सकता है? जो आपके नाम से खाली है, उसको मैं नहीं छोडूंगा।(25)
जो चैदह मुनि (दिवान) मुख्य माने जाते हैं, वे सत्य भक्ति (विधान) मर्यादा में रहकर नहीं करते हैं तो वे भी (मरकब) गधे बनाए जाएँगे।(26-27)
परमात्मा कबीर जी ने कहा कि जो पाप कर्म मेरी शरण में आने से पहले किए थे, उनको क्षमा कर दूँगा। आगे वह भक्त पाप कर्म नहीं करेगा। हे धर्मराय! जो मेरा नाम जाप करेगा, उसके पाप नाश कर दूँगा।(28)
परमेश्वर कबीर जी ने फिर कहा कि इस काल लोक के सब (संचित, वर्तमान व प्रारब्ध) कर्म जो भर्मित करके करवाए गए हैं, मैं उन सब पाप कर्मों को एक क्षण में नष्ट कर दूँगा। जिहोंने मेरी दुहाई दी है यानि पुकारकर कहा है कि हम कबीर परमेश्वर के भक्त/भक्तमति हैं। उनका हिसाब (कर्मों का लेखा-जोखा) तू मत करना। उनको मेरे दरबार में त्रिकुटी पर बने सतगुरू स्थान पर पेश करो। उनके कर्मों का हिसाब मैं करूँगा।(29)
जो परमात्मा कबीर जी के भक्त किसी गलती के कारण प्रथम नाम के जाप की कमाई के कारण ब्रह्मा के लोक में, चाहे विष्णु लोक में, चाहे शिव लोक में स्वर्ग में चला गया है और उसे वहाँ पर तत्त्वज्ञान याद आ जाता है कि यहाँ तो तेरी भक्ति की कमाई (पुण्य) समाप्त हो जाएगी। मोक्ष नहीं मिलेगा। वहाँ पर भी यदि मुझे याद कर लेगा तो उसे वहाँ से भी छुड़ाकर पुनः मानव जन्म प्रदान करके सत्य भक्ति की दीक्षा दिलाकर मुक्त कर दूँगा।(30)
धर्मराय की बहत्तर (72) करोड़ (धीय) पुत्री उर्वशी (स्वर्ग की परी) हैं जो सुर (देवताओं) को (नर) अच्छे व्यक्तियों को मुनिजनों को मोहित किए हुए हैं। अपने जाल में फँसाए हुए हैं। जो परमात्मा को भूल जाते हैं, वे काल के जाल में फँसे रह जाते हैं।(31)
धर्मराय बोला कि हे परमेश्वर! जो जीव (पीव) परमात्मा को (बिसरहीं) भूल जाते हैं, वे न आपके हैं, न हमारे हैं। उनको तो बहुत भांति से कष्ट दिया जाएगा।(32)
साहिब कबीर जी (पुरूष) परमेश्वर हैं क्योंकि वे जन्म-मरण से रहित हैं। जो जन्म लेता है, वह मरता है तथा अन्य चैरासी लाख प्रकार की योनियों में जन्म लेता है। वह काल के जाल में फँसा है। उसके (घट) शरीर रूपी घड़े में (सीव) संशय का जल है अर्थात् वह भर्मित प्राणी है। उसे सत्य पुरूष का ज्ञान नहीं है।(33)
परमेश्वर कबीर जी ने कभी जन्म नहीं लिया। उनका स्वरूप (शब्द स्वरूपी) अविनाशी है। वचन की शक्ति युक्त है। कबीर परमात्मा की शक्ति से प्रत्येक प्राणी बोल रहा है, चल रहा है।(34)
काल ब्रह्म की माया के प्रभाव से अनंत करोड़ अवतार उत्पन्न हो चुके हैं। पृथ्वी के ऊपर (कर्ता) परमात्मा बनकर जन्म लेते हैं। ऊपर से आते हैं। फिर से कर्मों के चक्र में फँसकर जन्म-मरण के चक्र में गिरकर कष्ट उठाते हैं। फिर से जगत फँद में फँसे रह जाते हैं। जैसे श्रीरामचन्द्र कर्ता बनकर राजा दशरथ के घर माता कौशल्या के गर्भ से जन्मे थे। बाली को धोखे से मारा। उसका पाप लगा। उस पाप कर्म को भोगने के लिए द्वापर युग में श्री कृष्ण जी के रूप में जन्मे। बाली वाली आत्मा ने शिकारी का जन्म लिया। श्री कृष्ण को धोखे से मारकर बदला लिया। श्रीरामचन्द्र रूप में केवल एक पत्नीव्रत धर्म पर कायम रहे। पापों से बचे रहे। श्री कृष्ण रूप में सारी कसर निकाल ली। आठ तो विवाह किए यानि आठ स्त्रिायों को भोगा। फिर हजारों गोपी-गुजरियों को भोगा। सोलह हजार स्त्रियाँ एक राजा ने घेर रखी थी। उनको छीनकर श्री कृष्ण लाया। उन सबको भोगा। भोगा काल ने, पाप लगाए श्री कृष्ण को। इन पापों का दंड भी चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाकर श्री कृष्ण उर्फ श्री राम वाली आत्मा पाप कर्मों का दंड भोगेगी।(35)
श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव तो केवल तीन लोक (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक, पाताल लोक) के राजा (प्रभु) हैं। परमात्मा कबीर जी का (धाम) स्थान बहुत ऊँचा है। सतलोक रूपी प्रदेश है। अल्लाह कबीर सबका (मालिक) सम्राट है।(36)
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