सूक्ष्मवेद में हजरत मुहम्मद जी का संक्षिप्त जीवन परिचय

सूक्ष्मवेद में हजरत मुहम्मद जी का संक्षिप्त जीवन परिचय

हजरत मुहम्मद जी के बारे में संत गरीबदास जी के विचार

{संत गरीबदास जी रचित सद्ग्रन्थ साहेब से कुछ वाणियाँ (मुहम्मद बोध)}

ऐसा जान मुहंमद पीरं, जिन मारी गऊ शब्द कै तीरं। शब्दै फेर जिवाई, जिन गोसत नहीं भाख्या हंसा राख्या ऐसा पीर मुहंमद भाई।।2।। पीर मुहंमद नहीं बहिश्त सिधाना। पीछै भूल्या है तुरकानां।।3।। गोसत खांहि नमाज गुजारै, सो कहो क्यूँ करि बहिश्त सिधारैं।।4।। एकही गूद, एकही गोस्त, सूर गऊ एकै जाती। एकै जीव साहिब कूं भेज्या, दोहूं मैं एकै राती।।5।। एकै चाम एक ही चोला, गूद हाड की काया। भूल्या काजी कर्द चलावै, कदि रबकूं फुरमाया।।6।। काजी कौन कतेब तुम्हारी, ना तूं काजी ना तूं मुल्लां। झूठा है व्यापारी।।7।। काजी सो जो कजा नबेडै। हक्क हलाल पिछाने, न्याव करै दर हाल दुनीका, नीर क्षीर कूं छानैं।।8।। मुल्लां सो जो मूल मिलावै, दिल महरम दिल बीच दिखावै।।9।। सो मुल्लां मसताखी। सोतो मुल्लां बहिश्त सिधारे, और मुल्लां सब खाखी।।10।। कलमा रोजा बंग नमाजा, आप अल्लाह फरमाया। रोजै रहिकर मुरगी मारी, यौह क्या पंथ चलाया।।11।। है रोजे सै राह निराला, कलमा काल गिरासा। कूकै बंगी बुद्धि भिष्ट है, करो नमाज अकासा।।12।।

जिस समय चालीस वर्ष की आयु में हजरत मुहम्मद जी को नबूवत मिली, उस समय मूसा वाले यहूदी धर्म में तथा ईसाई धर्म में त्रुटियाँ आ गई थी। मूर्ति पूजा भी काफी चल रही थी। हजरत मुहम्मद जी ने भी मूर्ति पुजा का खण्डन किया। मानव को एक ईश्वर पर आधारित करने की कोशिश की। हजरत मुहम्मद साहेब ने अलग से एक और भक्ति मार्ग बताया और उस भक्ति मार्ग को मानने वालों को मुसलमान कहने लगे। बाद में धर्म का रूप धारण कर लिया। मुसलमान का अर्थ है आज्ञाकारी यानि वह पवित्र आत्मा जो किसी को दुःखी न करे, तम्बाखु, शराब व मांस को पीना व खाना तो दूर छुए भी नहीं, ब्याज भी न ले। उन्होंने सतमार्ग दर्शन किया और हर मानव को एक परमात्मा पर आधारित करने की चेष्टा की। उसके लिए उन्होंने अपना अलग से प्रचार शुरु किया। मुहम्मद साहेब भगवान शिव के अवतार थे। शिव के लोक से आए शक्तियुक्त संस्कारी पाक आत्मा पैगम्बर थे। इनके शब्द में शक्ति थी। जो भी इनके विचारों को सुन लेते थे। इनके अनुयायी बन जाते थे। हजरत मुहम्मद साहेब सबको कहा करते थे कि जो किसी को मारे-काटे दुःखी करे वह मुस्लमान नहीं होता। जो मांस खाएगा, शराब व तम्बाखु पीयेगा, वह दुष्ट आत्मा होगा। जिन्होंने इस आदेश का पालन किया, वह मुसलमान कहलाया। चारों किताबों (जबूर, तौरत, इंजिल तथा कुरआन) का ज्योति निरंजन यानि काल ब्रह्म की तरफ से उनको आदेश हुआ और मुहम्मद जी ने कुरआन को धार्मिकता के आधार पर अपने अनुयाईयों को दिया। एक दिन पूर्ण परमात्मा (अल्लाह) का मुहम्मद साहेब को साक्षात्कार हुआ। पूर्ण परमात्मा ने उसे स्वसम (सूक्ष्म) वेद (पाँचवीं किताब) दिया तथा समझाया कि पूर्ण ब्रह्म कबीर है, वह मैं स्वयं हूँ। जो पूजा तुम कर तथा करवा रहे हो वह काल अल्लाह तक की है। जिससे आप जन्म-मरण में ही रहते हो। आप सर्व प्राणी मेरी आत्मा हो। मैं आप सर्व का पिता कुल का मालिक हूँ। मेरा ज्ञान बताओ! मैं ही अल्लाह कबीर हूँ। आप अपने अनुयाईयों को यह स्वसम (सुक्ष्म) वेद वाला ज्ञान बताओ तथा काल जाल से छुड़वाओ। आप को बहुत पुण्य होगा। इतना कह कर पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब अंतध्र्यान हो गए। उस समय मुहम्मद साहेब कुरआने किताब के रंग में अपने अनुयाईयों को रंग चुके थे। वे कहते थे कि निराकार अल्लाह ही परम शक्ति है जिसने कुरआन का ज्ञान बताया है। इससे आगे कोई ईश्वर नहीं है। वही कुल मालिक एक अल्लाह है। मुहम्मद साहेब ने पाँचवे कुरआन अर्थात् पाँचवे स्वसम वेद को भी पढ़ा। उस समय यह कैसे कहे कि अपना ज्ञान (कुरआन वाला) पूर्ण नहीं है। इस शर्म के कारण किसी मुसलमान को सूक्ष्मवेद वाला ज्ञान नहीं बताया।

जब स्वयं पूर्ण परमात्मा उनसे पुनः आकर मिले तो कहा कि मुहम्मद आप एक बहुत अच्छी आत्मा हो। जो भक्ति आपने भक्त समाज को दी है यह पूर्ण नहीं है। एक पाँचवी कुरआन अर्थात् कतेब (सूक्ष्म वेद) आपको मैंने दी है। इसके आधार पर आप ने क्या सोचा? मुहम्मद साहेब ने कहा कि मैं आपके ऊपर कैसे विश्वास करूँ कि आप अल्लाह हो तथा उस अव्यक्त (बेचून अर्थात् निराकार अल्लाह) से भी ऊपर हो? आँखों देखूँ तो विश्वास करूँ। पूर्ण परमात्मा ने कहा कि विश्वास तो मैं करा सकता हूँ यदि आप मेरे विचारो को सुनोगे व मेरे को सहयोग दोगे। मुहम्मद साहेब ने कहा कि मैं तैयार हूँ।

पूर्ण परमात्मा (अल्लाह) ने मुहम्मद से कहा कि आप मेरे साथ सत्यलोक चलो। मुहम्मद साहेब की आत्मा को पूर्ण परमात्मा (अल्लाह कबीर) अपने यथा स्थान सत्यलोक में ले गए। जहाँ पर जाने के बाद जीव का फिर पुनःजन्म नहीं होता। उसको सतलोक कहते हैं। मुहम्मद साहेब को यह मालूम हुआ कि यहाँ पर आने के बाद जीव का फिर जन्म नहीं होता। फिर भी अपने उस पुराने ज्ञान के आधार पर और पृथ्वी पर उनके लाखों की संख्या में अनुयायी हो चुके थे। उनसे मुहम्मद साहेब की प्रभुता बहुत बनी हुई थी, उनका महत्त्व हो गया था। इस अपनी महिमा के कारण सतलोक नहीं रहे। पूर्ण अल्लाह पर विश्वास नहीं किया। वहाँ पर रहना स्वीकार नहीं किया और वापिस पृथ्वी पर ही आ गए। अल्लाह कबीर ने उनको पाँच कलमे जाप के बताए। उनमें से एक कलमा ही संगत को बताया ‘‘अल्लाहू अकबर‘‘, अन्य नहीं बताए जो कुरआन में सांकेतिक (code words) शब्दों में लिखे हैं।

गरीबदास जी महाराज की वाणी के आधार पर:-

हम मुहम्मद को वहाँ(सतलोक) ले गयो, इच्छा रूपी वहाँ नहीं रहो।
उल्ट मुहम्मद महल (शरीर में) पठाया, गुझ बीरज एक कलमा लाया।
रोजा बंग नमाज दई रे, बिसमल की नहीं बात कही रे।
मुहम्मद ने नहीं ईद मनाई, गऊ न बिसमल किती।
एक बार कहा मोमिन मुहम्मद, तापर ऐसी बीती।

पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब की कृपा से मुहम्मद जी कुछ सिद्धि शक्ति युक्त हो गया। एक दिन नबी मुहम्मद जी के सामने अचानक एक बकरा मर गया। हजरत मुहम्मद ने हमदर्दी जताते हुए व कलमा पढते हुए ज्यों ही अपना हाथ उस मृत बकरे के शरीर से लगाया वह मृत बकरा जीवित हो गया। नबी मुहम्मद आश्यर्च चकित रह गए तथा समझ गए कि उस अल्लाह की कृप्या से शक्ति युक्त हो गया हूँ।

एक दिन कुछ अनुयाई हजरत मुहम्मद जी के पास बैठे थे तथा उनकी भेड़-बकरियाँ वहाँ घास चर रही थी। एक तगड़ा बकरा दूसरे कमजोर बकरे को मार रहा था। उस समय नबी मुहम्मद जी ने अपने मुख से कलमा (मन्त्रा) पढ़ा जिस से वह तगड़ा बकरा मर गया। सर्व उपस्थित मुस्लमानों ने देखा कि नबी मुहम्मद जी ने अपनी शब्द शक्ति (वचन) से बकरा मार दिया। फिर वह गरीब व्यक्ति जिसका वह बकरा था रोने लगा कि मुझ निर्धन के पास दो बकरियाँ तथा यह एक ही बकरा था। तब हजरत मुहम्मद जी ने कहा कि ऐ खुदा के बन्दे मुस्लमान रो मत, अभी तेरे बकरे को जीवित करता हूँ। मुहम्मद जी उठे तथा बकरे के पास जाकर कलमा पढ़ा तथा हाथ से स्पर्श किया। उसी समय वह बकरा जीवित हो गया।

सर्व मुसलमानों ने वह दिन तथा समय नोट कर लिया तथा सर्व मुस्लमान समाज में हजरत मुहम्मद जी की बड़ाई होने लगी। कुछ लोग कहने लगे कि यह झूठ है। कभी मरा हुआ जीव जीवित होता है? इस बात का पता मुहम्मद जी को लगा। तब नबी मुहम्मद जी ने कहा कि अब की बार गाय को शब्द (वचन) से मार कर जीवित करूँगा। जिस किसी को भी अविश्वास हो तो देख लेना। उस के लिए एक दिन निश्चित हुआ। भारी संख्या में दर्शक एकत्रित हो गए। हजरत मुहम्मद जी ने एक गाय को शब्द (वचन) से मार दिया। {एक पुस्तक में लिखा है कि ईमान न लाने वाले विरोधियों ने कहा कि हम गाय को कत्ल करेंगे। तब जीवित करे तो मानें। ’’चार यार मिल मसलित भीनी। गऊ पकड़ कर बिसमिल कीन्हीं।।‘‘

यानि कुछ व्यक्तियों ने सभा करके निर्णय लेकर गाय को कत्ल कर दिया तथा कहा कि नबी जी इसे जीवित कर।} सर्व उपस्थित दर्शकों ने देखा की गाय वास्तव में मर चुकी है। तब नबी मुहम्मद ने गाय को जीवित करने के लिए कलमा पढ़ा तथा हाथ से स्पर्श भी किया परन्तु गाय जीवित नहीं हुई। फिर अपनी इज्जत की रक्षा के लिए अपने निराकार अल्लाह तथा जबराईल आदि फरिश्तों से प्रार्थना की परन्तु गाय जीवित नहीं हुई।

अंत में पूर्ण परमात्मा कबीर से (याह अल्लाह -अल्लाहु कबीर कहकर) ऊपर को मुख करके कभी जमीन में मस्तक रखकर बार-बार याचना करने लगा। फिर उसी पूर्ण परमात्मा को हृदय से पुकारा कि हे कुल मालिक अल्लाह कबीर (इसी को अल्लाहु अकबरू कहते हैं) मेरी लज्जा रखो। उस समय वही पूर्ण परमात्मा गुप्त रूप में (शब्द रूप में) आए। केवल मुहम्मद साहेब को दिखाई दिए, अन्य को नहीं। अल्लाह कबीर ने अपनी शक्ति से उस गऊ को जीवित कर दिया। मुहम्मद साहेब ने देखा तथा अन्य दर्शकों को पूर्ण परमात्मा (सत्यपुरुष) दिखाई नहीं दिए। वह गऊ जीवित हो गई। दर्शक सोच रहे हैं कि यह गाय मुहम्मद साहेब ने जीवित की है। परन्तु मुहम्मद साहेब को यह विश्वास हो गया कि यह तेरे बस से बाहर की बात थी। लेकिन किसी को नहीं बताया। स्वयं बहुत प्रभावित हुए। पूर्ण परमात्मा (हक्का कबीर) अंतध्र्यान हो गए।

मुहम्मद साहेब बहुत प्रार्थना करते हैं कि हे पूर्ण परमात्मा मुझे एक बार फिर दर्शन दो। परन्तु पूर्ण परमात्मा ने उन्हें फिर दर्शन नहीं दिए क्योंकि वे प्रभु की आज्ञा की अवहेलना कर चुके थे तथा यह भी स्वीकार नहीं किया था कि मैं इस पाँचवी किताब (स्वसम-सूक्ष्म वेद) का भक्त समाज में प्रचार कर दूँगा। वह मुहम्मद जी ने अपने पास गुप्त रखा।

ऐसा ही मुहम्मद जीवन परिचय में प्रमाण मिलता है कि मुहम्मद साहेब कई दिनों तक अपने मकान (मस्जिद) में अंदर ही रहे। नमाज के लिए बाहर नहीं आए। जब अनुयाईयों ने आवाज दी तो मुहम्मद साहेब ने कहा कि तुम नमाज करो। मैं तुम पर पाँचवा कलाम (प्रभु की वाणी) नहीं थोपना चाहता, इसको मैं स्वयं रखूं्रगा। मेरे को अल्लाह का हुक्म हुआ है। एक पाँचवीं किताब और मुझे मिली है, लेकिन यह तुम्हें नहीं दूँगा। इसका आप पर वजन नहीं डालूंगा। ऐसा कहकर वह सुक्ष्म वेद का ज्ञान नहीं दिया।

उसके बाद मुहम्मद साहेब के अनुयाईयों ने उनके शरीर छोड़ जाने के बाद वह दिन हजरत मुहम्मद की समर्थता के प्रतीक में मनाना शुरू किया जिस दिन मुहम्मद साहेब ने शब्द (वचन) से बकरे को मारा था और जीवित कर दिया था फिर शब्द से गऊ को मारा था और उसी गाय को पूर्ण परमात्मा (सत कबीर अर्थात् अल्लाहु कबीर) ने स्वयं आकर जीवित किया था। लेकिन पूर्ण परमात्मा अन्य को दिखाई नहीं दिए। इसलिए हजरत मुहम्मद के अनुयाईयों ने सोचा कि यह गाय हजरत मुहम्मद जी ने ही जीवित की है। वे तिथियाँ जिस दिन गाय व बकरे को मारकर जीवित किया था, मुसलमानों ने याद रखा। मुहम्मद साहेब के शरीर त्याग जाने के बाद उस दिन की याद ताजा रखने के लिए उन दिनों में गाय तथा बकरे को बिसमिल (हत्या) किया जाने लगा। बिसमिल तो करने लग गए लेकिन उसको जीवित नहीं कर पाए। गरीबदास जी की वाणी से:-

मारी गऊ शब्द के तीरं, ऐसे होते मुहम्मद पीरं।
शब्दै फेर जीवाई, हंसा राख्या मांस नहीं भाख्या, ऐसे पीर मुहम्मद भाई।

मुस्लमान मान रहे हैं कि मुहम्मद साहेब ने गाय को शब्द से मार कर जीवित कर दिया। इसलिए समझाया है कि मुसलमानों के पीर मुहम्मद तो ऐसे महान थे। उन्होंने तो गाय को वचन से मारकर जीवित कर दिया था। यदि माँस खाना होता तो जीवित ही नहीं करते। लेकिन हजरत मुहम्मद जी ने (हंसा) गाय के जीव की रक्षा की। उसे जीवन दान दिया। माँस नहीं खाया। हे भाई मुसलमान! हजरत मुहम्मद ऐसे महान पीर थे। जब आप किसी को जीवन दान नहीं दे सकते तो उसका जीवन भी नहीं छीनना चाहिए। यह महापाप है। परंतु उपरोक्त परपंरा चल पड़ी। उस समय हर नगर में इस शुभ दिन को मनाने के लिए यह प्रक्रिया शुरू हो गई थी। निश्चित दिन बकरे व गाय काटी जाने लगी। उन बकरे तथा गाय के कटे हुए शरीर को नगर से दूर जंगल में डाल दिया जाता था जिसे गिद्ध पक्षी या अन्य जंगली माँसभक्षी जानवर खाते थे। मुसलमान उनका माँस नहीं खाते थे। यह परंपरा प्रारंभ हो गई। कई वर्ष ठीक चलता रहा। जैसे आजकल हर जगह मस्जिद बनी हुई हैं और वहाँ पर मुल्ला लोग रहते हैं और वे धार्मिक शिक्षा दिया करते हैं। ऐसे ही उस समय बहुत-से मस्जिद स्थान-स्थान पर बन गए थे। जहाँ पर ये काजी या मुल्ला धार्मिक ज्ञान देने वाले रहा करते थे। उनको सामूहिक आदेश दिया गया था कि हर नगर व गाँव में इस खुशी को मनाओ। अपने अनुयाईयों को विधिवत् साधना बताओ। एक समय अकाल पड़ा। दुर्भिक्ष के कारण भूखे मर कर दुनिया प्राण त्याग रही थी।

कलमा पढ़ कर गाय को हलाल किया गया। उसकी गर्दन काट दी गई। मांस को जंगल में डाल दिया कि उसको जंगली पशु-पक्षी खा लेंगे, हम मुस्लमान नहीं खायेंगे। क्योंकि जो मांस खाता था उसको पापी प्राणी गिना जाता था। बहुत भयंकर सजा दी जाती थी। शराब, मांस, तम्बाखु मुस्लमान धर्म में बिल्कुल नहीं था। अकाल पड़ने से भूख के मारे दुनिया मर रही थी। उसी समय प्रत्येक गाँव में वह त्यौहार मनाया गया। गाय बिसमिल करके जंगल में डाल दी गई। भूखे मरते हुए कुछेक मुस्लमानों ने उस गऊ के मांस को खा लिया। उसको अन्य ने देखा और उन मांस खाने वालों की शिकायत की गई। गाँव में एक हलचल-सी मच गई कि ऐसा जुल्म कर दिया। मुसलमान ने माँस खा लिया। हद है, धिक्कार है, इसको सजा दो, गाँव से निकाल दो, खत्म कर दो। सभी लोग एकत्रित हुए और दोषियों को पकड़ा गया। मुल्ला और काजियों के पास ले जाया गया। इस प्रकार की घटना हर शहर और हर गाँव में हो गई। उनके दोष की सुनवाई का समय रखा गया। ताकि हम अन्य मुस्लमानों से जो अन्य शहरों में मुख्य मुल्ला (काजी, पीर) हैं उनसे सलाह ले लें।

{तौरेत पुस्तक में लिखा है कि वे लोग (जिनमें हजरत मूसा व अनुयाईयों के पूर्वज भी थे क्योंकि उसी समुदाय से मूसा जी के अनुयाई बने थे) गाय का विशेष सम्मान करते थे। गाय के बछड़े, बैल का माँस नहीं खाते थे। उनकी पूजा किया करते थे। मुहम्मद के समय प्रत्येक गाँव में यहूदियों की सँख्या भी खासी होती थी। (प्रमाण:- कुरआन सूरः अल् बकरा-2 आयत नं. 67-71)

नोट:- अनुवादकर्ताओं ने इन आयतों में टिप्पणी की है कि इस्राईल के वंशजों को मिस्र निवासियों और अपने पड़ोसी कौमों से गाय की महानता, पवित्रता और गौ पूजा का रोग लग गया था। उसी कारण उन्होंने मिस्र से निकलते ही बछड़े को पूज्य बना लिया था। इसलिए जब मूसा में प्रवेश काल के दूत ने अपनी कौम यानि मूसा की कौम (क्योंकि मूसा बोलता नजर आता था, बोलता फरिस्ता था) को गाय जब्ह करने को कहा कि यह अल्लाह का हुक्म है। तब उन्होंने कहा कि मूसा क्यों मजाक करता है? अल्लाह गाय को कत्ल करने को नहीं कह सकता।}

जो मुख्य मुल्ला या काजी थे, उनके पास चारों ओर से शिकायतें आई। हजारों की संख्या में लोग दोषी पाए गए। उस समय यह फैसला लिया गया कि इन सभी को सजाए मौत नहीं देनी चाहिए। (माँस खाने वाले को सजाए मौत का प्रावधान किया जाता था)। सलाह बनाई कि जाकर आदेश दे दो कि जो गाय का माँस था वह कलमा पढ़ने से पवित्र हो गया था और उसको खाने से वे दोषी नहीं हुए क्योंकि वह प्रसाद बन गया था। इसलिए उन्हें माफ किया जाए, सजा-ए-मौत नहीं देनी चाहिए। यदि वैसे कोई किसी प्राणी को स्वयं मार कर माँस को खाएगा, वह दोषी होगा। गाय जो बिसमिल की गई थी, इस पर कलमा पढ़ा था जिससे इसका माँस पवित्र हो गया था और प्रसाद बन गया था। इसलिए इसको खाने का पाप नहीं लगा। वहाँ पर ये बचाव करना बहुत आवश्यक हो गया था। इसलिए उस समय के महापुरुषों ने (मुसलमानों के मुखियों ने) सोचा तो अच्छा था। लेकिन आगे चलकर यह बुराई का कारण बन गया। सभी जगह बात फैल गई कि कोई बिसमिल की हुई गाय या बकरे का माँस खाता है तो वह प्रसाद रूप में खाया जाता है और उसका कोई पाप नहीं लगेगा। अब इस पाप कर्म ने धर्म का रूप धारण कर लिया। उसको वे मोलवी लोग भी मना नहीं कर पाए। इसी प्रकार वह बकरा हलाल करने का दिन भी उसी अकाल के दौरान आया जिसे बकरीद नाम से मनाया जाता है। उसमें भी यह घटना हुई तथा उसका भी उपरोक्त निर्णय लेकर दोषियों को दोष मुक्त कर दिया गया।

विशेष परिस्थितियों के कारण ऐसे पवित्र धर्म में यह भयंकर बुराई शुरू हो गई। {हजरत मुहम्मद तथा उनके एक लाख अस्सी हजार अनुयाईयों ने कभी मांस-शराब, तम्बाखु सेवन नहीं किया और न ही ऐसा करने का आदेश दिया।} अब इसका अंत विशेष विवेक और विचार के साथ किया जा सकता है। शराब को तो आज भी मुस्लमान लोग कहते हैं कि अगर शराब की कोई बूंद शरीर के किसी अंग पर भी गिर जाए तो वही से शरीर के मांस को भी काटकर फेंक दे। इतनी अपवित्र होती है। ऐसे ही ये तीनों की तीनों बुराई (मांस, शराब, तम्बाखु) इतनी ही भयंकर बताई गई थी लेकिन आने वाले समय में तम्बाखु का प्रयोग भी बहुत जोर-शोर से हुआ और मुसलमान समाज में माँस तो प्रसाद रूप में खाया जाने लगा। परंतु शराब से अभी भी बचे हैं। वर्तमान में भी मुसलमान शराब प्रयोग नहीं करते।

कुर्बानी की वास्तविक परिभाषा

विशेष परंपरा हो गई कि बकरा व गाय की कुर्बानी प्रभु के नाम पर की जाती है। (अब यहाँ व्यक्तियों को सोचना चाहिए कि कुर्बानी अपनी करनी चाहिए। प्रभु के नाम पर बकरे और गाय या मुर्गे की नहीं। वास्तव में कुर्बानी प्रभु के चरणों में समर्पण तथा सत्य भक्ति होती है। शीश काट देने तथा अविधिपूर्वक साधना करने से मुक्ति नहीं होती। यह तो काल की भूल भुलैया है। कुर्बानी गर्दन काटने से नहीं होती, समर्पण होने से होती है। प्रभु के निमित हृदय से समर्पित हो जाए कि हे प्रभु! तन भी तेरा, धन भी तेरा, यह दास या दासी भी तेरे, यह कुर्बानी प्रभु को पसंद है। हिसंा, हत्या खुदा कभी पसंद नहीं करता।)

अल-खिज्र (अल कबीर) की विशेष जानकारी →

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