कबीर परमेश्वर जी ने अपने शिष्य गरीबदास जी को बताया कि:-
सुनत ज्ञान गलताना पद पदें समाना।।(टेक)।।
अमर लोक से सतगुरू आए, रूप धरा करवांना।
ढूँढ़त ऊँट महल पर डोलैं, बूझत शाह ब्याना।।(टेक)
हम कारवान होय आये। महलौं पर ऊंट बताये।।(1)
बोलैं पादशाह सुलताना। तूं रहता कहां दिवाना।।(2)
दूजैं कासिद गवन किया रे। डेरा महल सराय लिया रे।।(3)
जब हम महल सराय बताई। सुलतानी कूं तांवर आई।।(4)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। ये बसे सराय में गीदी।।(5)
ऐसैं ही तूं चलि जाई। यौं हम महल सराय बताई।।(6)
अरे कोई कासिद कूं गहि ल्यावै। इस पंडित खांनंे द्यावै।।(7)
ऊठे पादशाह सुलताना। वहां कासिद गैब छिपाना।।(8)
तीजै बांदी होय सेज बिछाई। तन तीन कोरडे़ खाई।।(9)
तब आया अनहद हांसा। सुलतानी गहे खवासा।।(10)
मैं एक घड़ी सेजां सोई। तातैं मेरा योह हवाल होई।।(11)
जो सोवैं दिवस रू राता। तिन का क्या हाल बिधाता।।(12)
तब गैबी भये खवासा। सुलतानी हुये उदासा।।(13)
यौह कौन छलावा भाई। याका कछु भेद न पाई।।(14)
चैथे जोगी भये हम जिन्दा। लीन्हें तीन कुत्ते गलि फंदा।।(15)
दीन्ही हम सांकल डारी। सुलतानी चले बाग बाड़ी।।(16)
बोले पातशाह सुलताना। कहां सैं आये जिन्द दिवाना।।(17)
ये तीन कुत्ते क्या कीजै। इनमंे सैं दोय हम कूं दीजै।।(18)
अरे तेरे बाप दादा है भाई। इन बड़ बदफैल कमाई।।(19)
यहां लोह लंगर शीश लगाई। तब कुत्यौं धूम मचाई।।(20)
अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। तूं समझै क्यूं नहीं गीदी।।(21)
अब तुम तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढने कूं शूली।।(22)
जोगी जिन्दा गैब भया रे। हम ना कछु भेद लह्या रे।।(23)
बोले पादशाह सुलताना। जहां खड़े अमीर दिवाना।।(24)
येह च्यार चरित्र बीते। हम ना कछु भेद न लीते।।(25)
वहां हम मार्या ज्ञान गिलोला। सुलतानी मुख नहीं बोला।।(26)
तब लगे ज्ञान के बानां। छाड़ी बेगम माल खजाना।।(27)
सुलतानी जोग लिया रे। सतगुरु उपदेश दिया रे।।(28)
छाड्या ठारा लाख तुरा रे। जिसे लाग्या माल बुरा रे।।(29)
छाड़े गज गैंवर जल हौडा। अब भये बाट के रोड़ा।।(30)
संग सोलह सहंस सुहेली। एक सें एक अधिक नवेली।।(31)
गरीब, अठारह लाख तुरा जिन छोड़े, पद्यमनी सोलह सहंस।
एक पलक में त्याग गए, सो सतगुरू के हैं हंस।।(32)
रांडी-ढ़ांडी ना तजैं, ये नर कहिए काग।
बलख बुखारा त्याग दिया, थी कोई पिछली लाग।।(33)
छाड़े मीर खान दीवाना, अरबों खरब खजाना।।(34)
छाडे़ हीरे हिरंबर लाला। सुलतानी मोटे ताला।।(35)
जिन लोक पर्गंणा त्यागा। सुनि शब्द अनाहद लाग्या।।(36)
पगड़ी की कौपीन बनाई। शालौं की अलफी लाई।।(37)
शीश किया मुंह कारा। सुलतानी तज्या बुखारा।।(38)
गण गंधर्व इन्द्र लरजे। धन्य मात पिता जिन सिरजे।।(39)
भया सप्तपुरी पर शांका। सुलतानी मारग बांका।।(40)
जिन पांचैं पकड़ि पछाड्या। इनका तो दे दिया बाड़ा।।(41)
सुनि शब्द अनाहद राता। जहां काल कर्म नहीं जाता।।(42)
हैं अगम अनाहद सिंधा। जोगी निरगुण निरबंधा।।(63)
कछु वार पार नहीं थाहं। सतगुरु सब शाहनपति शाहं।।(64)
उलटि पंथ खोज है मीना। सतगुरु कबीर भेद कहैं बीना।।(65)
यौह सिंधु अथाह अनूपं। कछु ना छाया ना धूपं।।(66)
जहां गगन धूनि दरबानी। जहां बाजैं सत्य सहिदानी।।(67)
सुलतान अधम जहां राता। तहां नहीं पांच तत का गाता।।(68)
जहां निरगुण नूर दिवाला। कछु न घर है खाला।।(69)
शीश चढाय पग धरिया। यौह सुलतानी सौदा करिया।।(70)
सतगुरु जिन्दा जोग दिया रे। सुलतानी अपन किया रे।।(71)
कहैं दास गरीब गुरु पूरा। सतगुरु मिले कबीरा।।(72)
{संत गरीबदास जी की इन उपरोक्त वाणियों का अर्थ यही है। इनमें भी सुल्तान इब्राहिम इब्न अधम के जीवन की घटनाओं का वर्णन है।}
सुल्तान अधम ने एक साधु की कुटिया देखी जो कई वर्षों से उस स्थान पर साधना कर रहा था। अब्राहिम उसके पास गया। वह साधक बोला कि यहाँ पर मत रहना, यहाँ कोई खाना-पानी नहीं है। आप कहीं और जाइये। सुल्तान अब्राहिम बोला कि मैं तेरा मेहमान बनकर नहीं आया। मैं जिसका मेहमान (अल्लाह का मेहमान) हूँ, वह मेरे रिजक (खाने) की व्यवस्था करेगा। इन्सान अपनी किस्मत साथ लेकर आता है। कोई किसी का नहीं खाता है। हे बेइमान! तू तो अच्छा नागरिक भी नहीं है। तू चाहता है अल्लाह से मिलना। नीयत ठीक नहीं है तो इंसान परमार्थ नहीं कर सकता। बिन परमार्थ खुदा नहीं मिलता। जिसने जीवन दिया है, वह रोटी भी देगा। अब्राहिम थोड़ी दूरी पर जाकर बैठ गया।
शाम को आसमान से एक थाल उतरा जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की सब्जी, हलवा, खीर, रोटी तथा जल का लोटा था। थाली के ऊपर थाल परोस (कपडे़ का रूमाल) ढ़का था। अब्राहिम ने थाली से कपड़ा उठाया और पुराने साधक को दिखाया। उस पुराने साधक के पास आसमान से दो रोटी वे भी जौ के आटे की और एक लोटा पानी आए। यह देखकर पुराना साधक नाराज हो गया कि हे अल्लाह! मैं तेरा भेजा हुआ भोजन नहीं खाऊँगा। आप तो भेदभाव करते हो। मुझे तो सूखी जौ की रोटी, अब्राहिम को अच्छा खाना पुलाव वाला भेजा है।
अल्लाह ने आकाशवाणी की कि हे भक्त! यह अब्राहिम एक धनी राजा था। इसके पास अरब-खरब खजाना था। इसकी 16 हजार रानियां थी, बच्चे थे। अमीर (मंत्राी) तथा दीवान थे। नौकर-नौकरानियां थी। यह मेरे लिए ऐसे ठाठ छोड़कर आया है। इसको तो क्या न दे दूँ। तू अपनी औकात देख, तू एक घसियारा था। सारा दिन घास खोदता था। तब एक टका मिलता था। सिर पर गट्ठे लेकर नित बोझ मरता था। न बीबी (स्त्री) थी, न माता थी, न कोई पिता तेरा सेठ था। तुझको मैं पकी-पकाई रोटियां भेजता हूँ। तू फिर भी नखरे करता है। यदि तू मेरी रजा में राजी नहीं है तो कहीं और जा बैठ। यदि भक्ति से विमुख हो गया तो तेरा घास खोदने का खुरपा और बाँधने की जाली, ये रखी, जा खोद घास और खा। यदि कुछ हासिल करना है तो मेरी रजा से बाहर कदम मत रखना। भक्त में यदि कुब्र (अभिमान) है तो वह परमात्मा से दूर है। यदि भक्त में आधीनी है तो वह हक्क (परमेश्वर) के करीब है। सुल्तान अधम ने परमेश्वर से अर्ज की कि हे दाता! मैं मेहनत करके निर्वाह करूँगा।
आपकी भक्ति भी करूँगा। आप यह भोजन न भेजो। रूखी-सूखी खाकर मैं आपके चरणों में बना रहना चाहता हूँ। यह भोजन आप भेज रहे हो। यह खाकर तो मन में दोष आएंगे, कोई गलती कर बैठूँगा। यह अर्ज वह पुराना भक्त भी सुन रहा था। उसकी गर्दन नीची हो गई। परमात्मा से अर्ज की, प्रभु! मेरी गलती को क्षमा करो। मैं आपकी रजा में प्रसन्न रहूँगा। उस दिन से अब्राहिम जंगल से लकड़ियां तोड़कर लाता, बाजार में बेचकर खाना ले जाता। आठ दिन तक उसी को खाता और भक्ति करता था।
कुछ वर्ष पश्चात् अब्राहिम भ्रमण पर निकला। एक सेठ का बाग था। उसको नौकर की आवश्यकता थी। सुल्तान को पकड़कर बाग की रखवाली के लिए रख दिया। एक वर्ष पश्चात् सेठ बाग में आया। उसने अब्राहिम से अनार लाने को कहा। अनार लाकर सेठ को दे दिए। अनार खट्टे थे। सेठ ने कहा कि तेरे को एक वर्ष में यह भी पता नहीं चला कि मीठे अनार कैसे होते हैं?
सुल्तान ने कहा कि सेठ जी! आपने मेरे को बाग की सुरक्षा के लिए रखा है, बाग उजाड़ने के लिए नहीं। यदि रक्षक ही भक्षक हो जाएगा तो बात कैसे बनेगी? मैंने कभी कोई फल खाया ही नहीं तो खट्टे-मीठे का ज्ञान कैसे हो सकता है? सेठ ने अन्य नौकरों से पूछा तो नौकरों ने बताया कि यह नौकर तो जो रोटी मिलती है, बस वही खाकर बाग के चारों ओर कुछ बड़बड़ करता घूमता रहता है। हमने गुप्त रूप से भी देखा है। इसने कभी कोई फल नहीं तोड़कर खाया है, न नीचे पड़ा उठाया है।
किसी नौकर ने बताया कि यह बलख शहर का राजा है। मैंने 10 वर्ष पहले इसको जंगल में शिकार के समय देखा था। जब मैंने इससे पूछा कि लगता है आप बलख शहर के सुल्तान अब्राहिम अधम हो। पहले तो मना किया, फिर मैंने बताया कि आपको शिकार के समय जंगल में देखा था। आपकी सेना में मेरा साला याकूब बड़ा अधिकारी है। उसने बताया कि राजा ने सन्यास ले लिया है। उसका बेटा गद्दी पर बैठा है। तब इसने कहा कि किसी को मत बताना। सेठ ने चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और ढे़र सारा धन देकर कहा कि आप यह धन लेकर अपना निर्वाह करो, भक्ति भी करो। मेरे घर रहो या बाग में महल बनवा दूँ, यहाँ रहकर भक्ति करो। सुल्तान धन्यवाद कहकर चल पड़ा।
एक समय सुल्तान एक संत के आश्रम में गया। वहाँ कुछ दिन संत जी के विशेष आग्रह से रूका । संत का नाम हुकम दास था। बारह शिष्य उनके साथ आश्रम में रहते थे। सबके नाम के पीछे दास लगा था। फकीर दास, आनन्द दास, कर्म दास, धर्मदास। उनका व्यवहार दास वाला नहीं था। उनके गुरू एक को सेवा के लिए कहते तो वह कहता कि धर्मदास की बारी है, उसको कहो, धर्मदास कहता कि आनन्द दास का नम्बर है। उनका व्यवहार देखकर सुल्तानी ने कहा कि:-
दासा भाव नेड़ै नहीं, नाम धराया दास। पानी के पीए बिन, कैसे मिट है प्यास।।
सुल्तानी ने उन शिष्यों को समझाया कि मैं जब राजा था, तब एक दास मोल लाया था।
मैंने उससे पूछा कि तू क्या खाना पसंद करता है। दास ने उत्तर दिया कि दास को जो खाना मालिक देता है, वही उसकी पसंद होती है। आपकी क्या इच्छा होती है? आप क्या कार्य करना पसंद करते हो? जिस कार्य की मालिक आज्ञा देता है, वही मेरी पसंद है। आप क्या पहनते हो? मालिक के दिए फटे-पुराने कपड़े ठीक करके पहनता हूँ। उसको मैंने मुक्त कर दिया। धन भी दिया। उसी की बातों को याद करके मैं अपनी गुरू की आज्ञा का पालन करता हूँ। अपनी मर्जी कभी नहीं चलाता। जो प्रभु देता है, उसकी आज्ञा जानकर खाता हूँ। मैं अपने को दास मानकर सेवा करता हूँ। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए गुरूदेव को प्रसन्न करना अनिवार्य होता है। उसके पश्चात् वे सर्व शिष्य दास भाव से रहकर अपने गुरू जी की आज्ञा का पालन करने लगे तथा आपस में अच्छा व्यवहार करने लगे। अपना जीवन सफल किया।
परमेश्वर कबीर जी एक आश्रम बनाकर रहने लगे। नाम जिन्दा बाबा से प्रसिद्ध थे। सुल्तानी को प्रथम मंत्र दीक्षा के कुछ महीनों के पश्चात् सतनाम की (दो अक्षर के मंत्र की) दीक्षा दी जिसमें एक ‘‘ओम्‘‘ मंत्र है तथा दूसरा उपदेश के समय बताया जाता है। दर्शन के लिए सुल्तान अनेकों बार आता रहा। सत्यनाम के पश्चात् योग्य होने पर सार शब्द साधक को दीक्षा में दिया जाता है। एक वर्ष के पश्चात् सुल्तान अधम ने अपने गुरू की कुटिया में जाकर सारनाम की दीक्षा के लिए विनम्र प्रार्थना की तो परमेश्वर जी ने कहा कि एक वर्ष के पश्चात् ठीक इसी दिन आना, सारनाम दूंगा। दर्शनार्थ कभी-भी आ सकते हो। सुल्तान अब्राहिम अधम ठीक उसी दिन सारनाम लेने के लिए गुरू जी की कुटिया में गया तो गुरू जी ने कहा कि ठीक एक वर्ष पश्चात् इसी दिन आना, सारनाम दँूगा। ऐसे करते-करते ग्यारह (11) वर्ष निकाल दिए। बीच-बीच में भी सतगुरू के दर्शन करने आता था, परंतु सारनाम के लिए निश्चित दिन ही आना होता था। जब ग्यारहवें वर्ष सुल्तानी सारशब्द के दीक्षार्थ आ रहा था तो एक मकान के साथ से रास्ता था। उस मकान की मालकिन ने छत से कूड़ा बुहारकर गली में डाला तो गलती से भक्त के ऊपर गिर गया। सुल्तान इब्राहिम के ऊपर कूड़ा गिरा तो वह ऊँची आवाज में बोला, क्या तुझे दिखाई नहीं देता? गली में इंसान भी आते-जाते हैं? यदि मैं आज राज्य त्यागकर न आया होता तो तेरी देही का चाॅम उधेड़ देता।
उस बहन ने क्षमा याचना की और कहा, हे भाई! मेरी गलती है, मुझे पहले गली में देखना चाहिए था। आगे से ध्यान रखँूगी। वह मकान वाली बहन भी जिन्दा बाबा की भक्तमति थी। उसने जब इब्राहिम को आश्रम में देखा तो गुरू जी से पूछा, हे गुरूदेव! वह जो भक्त बैठा है एकान्त में, क्या वह कभी राजा था? जिन्दा बाबा ने पूछा, क्या बात है बेटी? यहाँ तो राजा और रंक में कोई भेद नहीं है। आपने यह प्रश्न किस कारण से किया? यह पहले बलख शहर का राजा था। इसको मैंने ज्ञान समझाया तो इसने राज्य त्याग दिया और मेहनत करके लकड़ियां बेचकर निर्वाह करता है, भक्ति भी करता है। उस बहन ने बताया कि मेरे से गलती से सूखा कूड़ा छत से फैंकते समय इसके ऊपर गिर गया तो यह बहुत क्रोधित हुआ और बोला कि यदि मैंने राज्य न त्यागा होता तो तेरी खाल उतार देता। सत्संग के पश्चात् सार शब्द लेने वालों को बुलाया गया। जब सुल्तान अब्राहिम की बारी आई तो गुरू जी ने कहा कि अभी तो आप राजा हो, सार शब्द तो बच्चा! दास को मिलता है जिसने शरीर को मिट्टी मान लिया है। सुल्तानी ने कहा, गुरूदेव! राज्य को त्यागे तो वर्षों हो चुके हैं।
गुरू महाराज जी ने कहा, मुझसे कुछ नहीं छुपा है। तूने जैसा राज्य त्यागा है। राज भाव नहीं त्यागा है। आप एक वर्ष के पश्चात् इसी दिन सारनाम के लिए आना। एक वर्ष के पश्चात् फिर सुल्तानी आ रहा था। उसी मकान के साथ से आना था। गुरू जी ने उसी शिष्या से कहा कि कल वह राजा सारशब्द लेने आएगा। तेरे मकान के पास से रास्ता है, और कोई रास्ता कुटिया में आने का नहीं है। अबकी बार उसके ऊपर पानी में गोबर-राख घोलकर बाल्टी भरकर उसके ऊपर डालना। फिर उसकी क्या प्रतिक्रिया रहे, वह मुझे बताना। उस बहन ने ऐसा ही किया। बहन ने साथ-साथ यह भी कहा कि हे भाई! धोखे से गिर गया। मैं धोकर साफ कर दूँगी। आप यहाँ तालाब में स्नान कर लो। सुल्तान ने कहा कि बहन मिट्टी के ऊपर मिट्टी ही तो गिरी है, कोई बात नहीं, मैं स्नान कर लेता हूँ, कपड़े धो लेता हूँ। उस शिष्या ने गुरूदेव को सुल्तानी की प्रक्रिया बताई, तब उसको सारशब्द दिया और कहा, बेटा! आज तू दास बना है। अब तेरा मोक्ष निश्चित है।
इसलिए भक्तजनों को इस कथा से शिक्षा लेनी चाहिए। सारशब्द प्राप्ति के लिए शीघ्रता न करें। अपने अंदर सब विकारों को सामान्य करें। विवेक से काम लें, मोक्ष निश्चित है।
एक बार सुल्तान अधम अपने बलख शहर के बाहर एक तालाब पर जाकर बैठ गया। उसका पुत्र राजा था। पता चला तो हाथी पर चढ़कर बैंड-बाजे के साथ तालाब पर पहुँचा। पिता जी से घर चलने को कहा। सुल्तान ने साफ शब्दों में मना कर दिया। लड़के ने कहा कि आपने यह क्या हुलिया बना रखा है? आप यहाँ ठाठ से रहो। आप भिखारी बनकर कष्ट उठा रहे हो। मेरी आज्ञा से आज सब कुछ हो जाता है। सुल्तान ने कहा कि जो परमात्मा कर सकता है, वह राजा नहीं कर सकता। लड़के ने कहा कि आप आज्ञा दो, वही कर दूँगा। आपको हमारे पास रहना होगा। सुल्तानी ने कहा कि ठीक है, स्वीकार है। मैं हाथ से कपड़े सीने की एक सूई इस तालाब में डालता हूँ। यह सूई जल से निकालकर मेरे को लौटा दे। राजा ने सिपाहियों, गोताखोरों तथा जाल डालने वालों को बुलाया। सब प्रयत्न किया, परंतु व्यर्थ। लड़के ने कहा, पिताजी! एक सूई के बदले हजार सूईयाँ ला देता हूँ। क्या आपका अल्लाह यह सूई निकाल देगा? तब सुल्तान ने कहा कि हे पुत्र! यदि मेरा अल्लाह यही सूई निकाल देगा तो क्या तुम भक्ति करोगे? क्या सन्यास ले लोगे? लड़के ने कहा कि आप पहले यह सूई अपने प्रभु से निकलवाओ, फिर सोचँूगा। इब्राहिम ने कहा कि परमात्मा की बेटी मछलियों! मुझ दास की एक सूई आपके तालाब में गिर गई है। मेरी सूई निकालकर मुझे देने की कृपा करें। कुछ ही क्षणों के उपरांत एक मछली मुख में सूई लिए इब्राहिम के पास किनारे पर आई। इब्राहिम ने सूई पकड़ ली और मछलियों का हाथ जोड़कर धन्यवाद किया। तब सुल्तानी ने कहा, बेटा! देख परमात्मा जो कर सकता है, वह मानव चाहे राजा भी क्यों न हो, नहीं कर सकता। अब क्या भक्ति करेगा? पुत्र ने कहा कि भगवान ने आपको सूई ही तो दी है, मैं तो आपको हीरे-मोती दे सकता हूँ। भक्ति तो वृद्धावस्था में करूंगा। भक्त इब्राहिम उठकर चल पड़ा। अपनी गुफा में चला गया।
विकार मरे ना जानियो, ज्यों भूभल में आग। जब करेल्लै धधकही, सतगुरू शरणा लाग।।
एक समय इब्राहिम सुल्तान मक्का शहर में गया हुआ था। उसका उद्देश्य था कि भ्रमित मुसलमान श्रद्धालु मक्का में हज के लिए या वैसे भी आते रहते हैं। उनको समझाना था। उनको समझाने के लिए वहाँ कुछ दिन रहे। कुछ शिष्य भी बने। किसी हज यात्राी ने बलख शहर में जाकर बताया कि सुल्तान इब्राहिम मक्का में रहता है। छोटे लड़के ने पिता जी के दर्शन की जिद की तो उसकी माता-लड़का तथा नगर के कुछ स्त्री-पुरूष भी साथ चले और मक्का में जाकर इब्राहिम से मिले। इब्राहिम अपने शिष्यों को शिक्षा देता था कि बिना दाढ़ी-मूछ वाले लड़के तथा परस्त्री की ओर अधिक देर नहीं देखना चाहिए। ऐसा करने से उनके प्रति मोह बन जााता है। अपने लड़के को देखकर इब्राहिम से रहा नहीं गया, एकटक बच्चे को देखता रहा। लड़के की आयु लगभग 13 वर्ष थी। शिष्यों ने कहा कि गुरूदेव आप हमें तो शिक्षा देते हो कि बिना दाढ़ी-मूछ वाले बच्चे की ओर ज्यादा देर नहीं देखना चाहिए, स्वयं देख रहे हो। इब्राहिम ने कहा, पता नहीं मेरा आकर्षण इसकी ओर क्यों हो रहा है? उसी समय एक वृद्ध ने कहा, राजा जी! यह आपकी (बेगम) पत्नी है और यह आपका पुत्र है। आप राज्य त्यागकर आए, उस समय यह गर्भ में था। आपसे मिलने आए हैं। उसी समय लड़का पिता के चरणों को छूकर गोदी में बैठ गया। इब्राहिम की आँखों में ममता के आँसूं छलक आए।
परमेश्वर की ओर से आकाशवाणी हुई कि हे सुल्तानी! तेरे को मेरे से प्रेम नहीं रहा। अपने परिवार से प्रेम है। अपने घर चला जा। उसी समय इब्राहिम को झटका लगा तथा आँखें बंद करके प्रार्थना की कि हे परमात्मा! मेरे वश से बाहर की बात है, या तो मेरी मृत्यु कर दो या इस लड़के की। उसी समय लड़के की मृत्यु हो गई। इब्राहिम उठकर चल पड़ा। बलख से आए व्यक्ति लड़के के अंतिम संस्कार करने की तैयारी करने लगे। परमात्मा पाने के लिए भक्त को प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है। तब सफलता मिलती है। उस लड़के के जीव को परमात्मा ने तुरंत मानव जीवन दिया और अपने भक्त के घर में लड़के को उत्पन्न किया। बचपन से ही उस आत्मा को परमात्मा का मार्ग मिला। एक बार सब भक्त बाबा जिन्दा के आश्रम में सत्संग में इकट्ठे हुए। वह लड़का उस समय 4 वर्ष की आयु का था। परमेश्वर की कृपा से उसका बिस्तर तथा इब्राहिम का बिस्तर साथ-साथ लगा था। इब्राहिम को देखकर लड़का बोला, पिताजी! आप मुझे मक्का में क्यों छोड़ आए थे? मैं अब भक्त के घर जन्मा हूँ। देख न अल्लाह ने मुझे आप से फिर मिला दिया। यह बात गुरू जी जिन्दा बाबा (परमेश्वर कबीर जी) के पास गई तो जिन्दा बाबा ने बताया कि यह इब्राहिम का लड़का है जो मक्का में मर गया था। अब परमात्मा ने इस जीव को भक्त के घर जन्म दिया है। इब्राहिम को लड़के के मरने का दुःख बहुत था, परंतु किसी को साझा नहीं करता था। उस दिन उसने कहा, कृपासागर! तू अन्तर्यामी है। आज मेरा कलेजा (दिल) हल्का हो गया। मेरे मन में रह-रहकर आ रहा था कि परमात्मा ने यह क्या किया? इसकी माँ घर पर किस मुँह से जाएगी? आज मेरी आत्मा पूर्ण रूप से शांत है। जिन्दा बाबा ने उस लड़की पूर्व वाली माता यानि इब्राहिम की पत्नी को संदेश भिजवाया कि वह आश्रम आए। लड़के तथा उसके नए माता-पिता तथा इब्राहिम को भी बुलाया। उस लड़के को पहले वाली माता से मिलाया। लड़का देखते ही बोला, अम्मा जान! आप मेरे को मक्का छोड़कर चली गई। वहाँ पर अल्लाह आए, देखो ये बैठे (जिन्दा बाबा की ओर हाथ करके बोला) और मेरे को साथ लेकर इनके घर छोड़ गए। मैं इस माई के पेट में चला गया। फिर मेरा जन्म हुआ। अब मैं दीक्षा ले चुका हूँ। प्रथम मंत्र का जाप करता हूँ। हे माता जी! आप भी गुरू जी से दीक्षा ले लो, कल्याण हो जाएगा। इब्राहिम की पत्नी ने दीक्षा ली और कहा कि इस लड़के को मेरे साथ भेज दो।
परमेश्वर कबीर जी (जिन्दा बाबा) ने कहा कि यदि उस नरक में (राज की चकाचैंध में) रखना होता तो इसकी मृत्यु क्यों होती? अब तो आप आश्रम आया करो और महीने में सत्संग में बच्चे के दर्शन कर जाया करो। इब्राहिम को उस लड़के में अपनापन नहीं लगा क्योंकि वह किसी अन्य के शरीर से जन्मा था। परंतु उसके भ्रम, मन की मूर्खता का नाश हो गया। जो वह मन-मन में कहा करता कि अल्लाह ने यह नहीं करना चाहिए था। अब उसे पता चला कि परमात्मा जो करता है, अच्छा ही करता है। भले ही उस समय अपने को अच्छा न लगे। अल्लाह के सब जीव हैं, वह सबके हित की सोचता है। हम अपने-अपने हित की सोचते हैं। रानी को भी उस लड़के में वह भाव नहीं था, परंतु आत्मा वही थी। इसलिए माता वाली ममता दिल में जाग्रत थी। इसलिए उसको देखकर शांति मिलती थी। यह कारण बनाकर परमेश्वर जी ने उस रानी का भी उद्धार किया और बालक का भी।
एक बार एक समुद्री जहाज में एक सेठ व्यापार के लिए जा रहा था। उसके साथ रास्ते का खाना बनाने वाले तथा मजाक-मस्करा करके दिल बहलाने वालों की पार्टी भी थी। लम्बा सफर था। महीना भर लगना था। मजाकिया व्यक्तियों को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जिसके ऊपर सब मजाक की नकल झाड़ सकें। खोज करने पर इब्राहिम को पाया और पकड़कर ले गए। सोचा कि इस भिखारी को रोटियाँ चाहिए, मिल जाएंगी। समुद्र में दूर जाने के पश्चात् सेठ के लिए मनोरंजन का प्रोग्राम शुरू हुआ। इब्राहिम के ऊपर मजाक झाड़ रहे थे। कह रहे थे कि एक इस (इब्राहिम) जैसा मूर्ख था। वह वृक्ष की उसी डाली पर बैठा था जिसे काट रहा था। गिरकर मर गया। हा-हा करके हँसते थे। इस प्रकार बहुत देर तक ऐसी अभद्र टिप्पणियाँ करते रहे।
इब्राहिम बहुत दुःखी हुआ। सोचा कि महीनों का दुःख हो गया। न भक्ति कर पाऊँगा, न चैन से रह पाऊँगा। उसी समय आकाशवाणी हुई कि हे भक्त इब्राहिम! यदि तू कहे तो इन मूर्खों को मार दूँ। जहाज को डुबो दूँ, तुझे बचा लूँ। ये तेरे को तंग करते हैं। यह आकाशवाणी सुनकर जहाज के सब व्यक्ति भयभीत हो गए। इब्राहिम ने कहा, हे अल्लाह! यह कलंक मेरे माथे पर न लगा। ये बेखबर हैं। इतने व्यक्तियों के मारने के स्थान पर मुझे ही मार दे या इनको सद्बुद्धि दे दो, ये आपकी भक्ति करके अपने जीव का कल्याण कराऐं। जहाज मालिक सहित सब यात्रियों ने इब्राहिम से क्षमा याचना की तथा परमात्मा का ज्ञान सुना। आदर के साथ अपने साथ रखा। भक्ति करने के लिए जहाज में भिन्न स्थान दे दिया। इब्राहिम ने उन सबको सत्यज्ञान समझाकर आश्रम में लाकर गुरू जी से दीक्षा दिलाई। इब्राहिम स्वयं दीक्षा दिया करता था। जब जिन्दा बाबा यानि परमेश्वर कबीर जी को किसी ने इब्राहिम की उपस्थिति में बताया कि हे गुरूदेव! इब्राहिम दीक्षा देता है। तब परमेश्वर जी ने बताया कि हे भक्त! आप गलती कर रहे हो। आप अधिकारी नहीं हो। उस दिन के पश्चात् इब्राहिम ने दीक्षा देनी बंद की तथा अपने सब शिष्यों को पुनः गुरू जी से उपदेश दिलाया। क्षमा याचना की, स्वयं भी अपना नाम शुद्ध करवाया। भविष्य में ऐसी गलती नहीं की। प्रश्न:- इस बात का कहाँ प्रमाण है कि अल-खिज्र रूप में अल्लाह कबीर ही लीला कर रहे थे? कबीर जी जुलाहा (काशी-भारत वाले) ही कादर अल्लाह है जिसने सब रचना की है। उत्तर:- पहले यह सिद्ध करता हूँ कि काशी (बनारस) शहर में जो कबीर नामक जुलाहा रहा करता था, वह सब सृष्टि का रचने वाला खुदा है। इसके लिए अनेकों चश्मदीद गवाह (म्लम ॅपजदमेे) हैं जिन्होंने उस समर्थ (कादर) अल्लाह को ऊपर (तख्त) सिंहासन पर बैठे देखा तथा बताया कि जो कबीर काशी शहर (भारत देश) में जुलाहे की भूमिका किया करता, वही समर्थ परमेश्वर है।
गवाह नं. 1:- संत गरीबदास जी गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रांत-हरियाणा (देश-भारत):- संत गरीबदास जी दस वर्ष के बालक अपने खेतों में गाँव के अन्य ग्वालों के साथ प्रतिदिन की तरह गाय चराने गए हुए थे। विक्रमी संवत् 1774 (सन् 1717) फाल्गुन महीने की शुदी (चांदनी) द्वादशी को दिन के लगभग दस बजे ग्वाले तथा बालक गरीबदास जी एक जांडी के वृक्ष के नीचे छाया में बैठकर भोजन खा रहे थे। परमेश्वर जी जिंदा बाबा (अल-खिज्र) के वेश में ऊपर आसमान वाले तख्त (सिंहासन) से चलकर कुछ दूरी पर धरती के ऊपर उतरे तथा ग्वालों के पास गए। वह जांडी का पेड़ गाँव-कबलाना से गाँव-छुड़ानी को जाने वाले कच्चे रास्ते पर था तथा कबलाना की सीमा के सटे संत गरीबदास जी के खेत में था। {संत गरीबदास के पिता जी के पास गाँव में एक हजार तीन सौ पचहत्तर (1375) एकड़ जमीन थी। उसी जमीन पर चरागाह बना रखी थी जिसमें गाँव छुड़ानी के अन्य निर्धन व्यक्ति भी अपनी गायों को चराने के लिए ले जाया करते थे।} बाबा जिंदा यानि साधु को देखकर बड़ी आयु के ग्वालों (पालियों) में से एक ने कहा कि बाबा जी भोजन खाओ। साधु ने कहा, ‘‘भोजन तो मैं अपने डेरे से खाकर आया हूँ।’’ कई ग्वाले एक साथ बोले, ‘‘यदि भोजन नहीं खाते तो दूध पी लो।’’ परमेश्वर ने कहा कि दूध पिला दो, परंतु दूध उसका पिलाओ जिसको कभी बच्चा उत्पन्न न हुआ हो यानि कंवारी गाय का। पालियों ने उसे मजाक समझा। बालक गरीबदास जी उठे तथा एक अपनी प्रिय बछिया को लाए और बोले, हे बाबा जी! यह कंवारी गाय दूध कैसे दे सकती है? तब बाबा जी ने कहा कि यह दूध देगी, तुम स्वच्छ बर्तन लेकर इसके थनों के नीचे रखो। संत गरीबदास जी ने एक मिट्टी का बर्तन (छोटा घड़ा 3.4 किलोग्राम की क्षमता का) लिया और उसे हाथों से पकड़कर बछिया के थनों के नीचे करके बैठ गया। बाबा जिंदा (अल-खिज्र) ने गाय की बछड़ी की पीठ के ऊपर हाथ से थपकी मारी। उसी समय थन लंबे व कुछ मोटे हो गए तथा दूध निकलने लगा। जब वह तीन-चार किलोग्राम का बर्तन भर गया तो थनों से दूध आना बंद हो गया। बालक गरीबदास जी ने वह दूध से भरा बर्तन बाबा जी को दे दिया तथा कहा कि यह तो आपकी दया से मिला है, पी लो। बाबा जिंदा ने उस बर्तन को मुख लगाकर कुछ दूध पीया। शेष उन पालियों की ओर किया कि पी लो, यह प्रसाद है। अन्य ग्वाले उठकर चल दिए। कहने लगे कि यह दूध जादू-जंत्र करके कंवारी बछड़ी से निकाला है। हमारे को कोई भूत-प्रेत की बाधा हो जाएगी। यह कोई सेवड़ा (भूत-प्रेत निकालने वाला) लगता है। कंवारी गाय का दूध पाप का दूध है। यह बाबा पता नहीं किस छोटी जाति का है। इसका झूठा दूध हम नहीं पीएँगे।
बालक गरीबदास जी ने बाबा से बर्तन लिया और पालियों के देखते-देखते उसमें से कुछ दूध पीया। वे बड़ी आयु के ग्वाले बालक को दूध न पीने के लिए कहते रहे। बालक नहीं माना। सब दूर चले गए। बाबा जिंदा तथा बालक गरीबदास जी रह गए। तब कुछ ज्ञान सुनाया। बालक ने सतलोक और समर्थ परमात्मा (जो ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी से भी शक्तिशाली जो बाबा ने बताया था) आँखों देखने की इच्छा की। जिंदा बाबा बालक गरीबदास के जीव को शरीर से निकालकर आसमान में ले गया। ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी के लोक दिखाए। स्वर्ग तथा नरक दिखाए। ब्रह्मलोक (महाजन्नत) काल ब्रह्म का दिखाया। फिर और ऊपर अपने अमरलोक में ले गए। जो बाबा जिंदा बालक के साथ गया था, वह ऊपर बने (तख्त) सिंहासन के ऊपर बैठ गया। उस समय परमात्मा रूप बन गए। परमात्मा के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक था। अमरलोक प्रकाशित था। बालक गरीबदास जी का भी अन्य शरीर बन गया जिसका प्रकाश सोलह सूर्यों के समान था। अमरलोक के सब भक्त/भक्तमति (हँस/हँसनी) अपने परमेश्वर को दंडवत् करने लगे। जय हो कबीर सतपुरूष की बुलाने लगे। सबने कहा कि ये अनंत करोड़ ब्रह्मंड का सृजनहार समर्थ परमेश्वर है। इसका नाम कबीर है। फिर परमात्मा ने सब ज्ञान अपने नबी गरीबदास जी की आत्मा में डाल दिया। सारा सतलोक तथा नीचे के सब लोक दिखाकर बालक की आत्मा को शरीर में प्रवेश करा दिया। उस समय बालक गरीबदास जी के शरीर को अंतिम संस्कार के लिए चिता (लकड़ियांे के ढे़र) पर रखा था। अग्नि लगाने ही वाले थे, उसी समय गरीबदास जी उठ लिए। गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। संत गरीबदास जी को उसी जिंदा बाबा वेशधारी परमेश्वर जी ने दीक्षा दी। संत गरीबदास जी ने आँखों देखा तथा परमेश्वर के मुख कमल से सुना सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान दोहों, चैपाईयों, शब्दों के रूप में बोला जो एक दादू जी के पंथ से दीक्षित गोपाल दास नाम के महात्मा जी ने लिखा। लेखन कार्य में लगभग छः महीने लगे।
प्रसंग है कि यह कहाँ प्रमाण है कि अल-खिज्र ही अल कबीर है:- जैसे इसी ‘‘अल-खिज्र (अल कबीर) की जानकारी’’ वाले प्रकरण में ‘‘रूमी का परिचय’’ शीर्षक में लिखा है कि रूमी नाम का व्यक्ति टर्की देश के कोणया शहर में एक मस्जिद में मौलवी था जो मुसलमान धर्म का प्रचार किया करता था। लोग उनका विशेष सम्मान किया करते। जो समस्तरबेज संत के ज्ञान को समझकर मौलवी की पदवी त्यागकर गुरू जी समस्तरबेज द्वारा बताई भक्ति करते थे जो प्रसिद्ध कवि भी हुए हैं। उन्होंने बताया कि बलख शहर के राजा (बलखी) सुल्तान इब्राहिम इब्न अधम ने अल-खिज्र से प्रेरणा पाकर राज त्याग दिया था। शेष जीवन अल-खिज्र के सम्पर्क में रहकर अल्लाह की इबादत में गुजारा। सुल्तान को अल-खिज्र के दर्शन हुआ करते थे। ऊपर आप जी ने पूरा प्रकरण सुल्तान इब्राहिम इब्न अधम का पढ़ा जिसमें स्पष्ट है कि अल्लाह कबीर जी ने सुल्तान को भक्ति के लिए प्रेरणा दी थी। इसलिए अल-खिज्र ही अल कबीर है। इसी का समर्थन संत गरीबदास जी ने किया है कि:-
गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया।
जाति जुलाहा भेद ना पाया, काशी मांही कबीर हुआ।।
अर्थात् संत गरीबदास जी ने बताया है कि हम सब (मैं गरीबदास, सुल्तान इब्राहिम इब्न अधम, सिख धर्म प्रवर्तक नानक जी तथा संत दादू जी) को उस सतगुरू कबीर परमेश्वर जी ने पार किया जो काशी शहर में जुलाहे जाति में हुआ है। फिर कहा है कि:-
गरीब, अनंत कोटि ब्रह्मंड का, एक रति नहीं भार। सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सृजनहार।।
अर्थात् सर्व ब्रह्मंडों के उत्पत्तिकर्ता यानि सारी कायनात के सृजनकर्ता मेरे सतगुरू कबीर परमेश्वर जी हैं। उन्होंने सब लोकों, तारागण तथा सब नक्षत्रों (सूर्य, चाँद, ग्रहों) को बनाकर अपनी शक्ति से रोका हुआ है जिसे विज्ञान की भाषा में गुरूत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं। उस सृजनहार कबीर के ऊपर इस सारी रचना (अनंत करोड़ ब्रह्मंडों) का कोई भार नहीं है। जैसे वैज्ञानिक ने वायुयान (।पतचसंदम) बनाकर उड़ा लिया। स्वयं भी उसमें सवार हो गया। जिस प्रकार उस वायुयान का वैज्ञानिक के ऊपर कोई भार नहीं है, उल्टा उसके ऊपर सवार है। इसी प्रकार कबीर कादर अल्लाह सब लोकों की रचना करके उनके ऊपर सवार है तथा सारे जीव सवार कर रखे हैं। इससे सिद्ध हुआ कि अल-खिज्र ही अल कबीर है।
गवाह नं. 2 (संत दादू दास जी):- संत दादू दास जी ग्यारह वर्ष के बालक थे। तब गाँव के बाहर जंगल में दादू जी को अल्लाह कबीर एक जिंदा बाबा के वेश में मिला। संत दादू जी की आत्मा को निकालकर अल-कबीर जी ऊपर अपने सतलोक में ले गए। दादू जी तीन दिन-रात अचेत रहे। ऊपर अपना तख्त (सिंहासन) दिखाया। अपना परिचय करवाया कि मैं पूर्ण ब्रह्म (परमेश्वर) हूँ। सारी सृष्टि मैंने रची है। बालक दादू जी को अल्लाह कबीर जी ने सब ब्रह्मंडों की सैर करवाकर तीसरे दिन आत्मा शरीर में प्रवेश कर दी। संत दादू दास जी सचेत हो गए। तब लोगों ने पूछा कि आपको क्या हो गया था? दादू जी ने बताया कि मेरे को एक बाबा के वेश में अल्लाह कबीर मिले थे और मुझे दीक्षा दी। ऊपर आसमानों पर लेकर गए थे। दादू जी के साथ उस समय कुछ अन्य हमउम्र बच्चे भी थे। उन्होंने भी बताया था कि एक बाबा ने जंत्र-मंत्र का जल बनाकर स्वयं पीया तथा पान के पत्ते को कटोरे रूप में बनाकर उसमें अपना झूठा पानी दादू को पिलाया था। फिर बाबा दिखाई नहीं दिया। दादू बालक बेहोश हो गया। संत गरीबदास जी ने अपनी वाणी में परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त ज्ञान को इस प्रकार बताया है कि:-
गरीब, दादू कूँ सतगुरू मिले, देई पान का पीक। बूढ़ा बाबा जिसे कहें, यह दादू की नहीं सीख।। अर्थात् संत दादू जी को सतगुरू रूप में कबीर अल्लाह मिले थे जो एक जिंदा बाबा के वेश में थे। उन्होंने दादू जी को पान के पत्ते के ऊपर अपने मुख से निकाला जल डालकर दीक्षा के समय पिलाया था। जो व्यक्ति यह कहते हैं कि दादू को वृद्ध बाबा मिला था जो जंत्र-तंत्र विद्या को जानने वाला था, यह दादू ने नहीं बताया। दादू जी ने उसके विषय में जो बताया है, वह इस प्रकार है जो दादू जी के द्वारा बोली वाणी से बने दादू ग्रंथ में लिखा है। वाणी:-
जिन मोकूं निज नाम दिया, सोई सतगुरू हमार।
दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सिरजनहार।।
दादू नाम कबीर का, सुनकर कांपे काल। नाम भरोसै जो चले, होवे ना बांका बाल। केहरी नाम कबीर है, विषम काल गजराज। दादू भजन प्रताप से, भागे सुनत आवाज।। अर्थात् दादू जी ने कहा है कि मेरे को जिसने (निजनाम) भक्ति का यथार्थ मंत्र दिया, वह मेरा सतगुरू है। उसका नाम कबीर है। यही कबीर सारी कायनात (सृष्टि) का (सृजनहार) उत्पत्तिकर्ता है।
संत दादू जी ने कहा है कि ‘‘कबीर’’ नाम सुनते ही ज्योति निरंजन (काल) कांपने लग जाता है। कबीर नाम इतना शक्तिशाली है। जो भक्त कबीर जी के बताए नाम पर पूर्ण विश्वास करके जीवन यात्रा करता है तो काल ब्रह्म उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता।
संत दादू जी ने कबीर अल्लाह की समर्थता एक उदाहरण के माध्यम से बताई है कि काल भी बहुत ताकतवर है, परंतु कबीर अल्लाह के सामने वह भी कमजोर पड़ जाता है। काल (गजराज) हाथियों के राजा के समान बलवान है। कबीर जी का भक्ति करने को दिया नाम भी बहुत शक्तिशाली है। वह केहरी यानि बब्बर शेर (ठपहहमेज स्पवद) के समान ताकतवर है। उस नाम का जाप (भजन) करने से उस नाम रूपी केहरी की शक्ति के आगे काल टिक नहीं पाता यानि नाम की सूक्ष्म दहाड़ (गाज) सुनकर काल रूप गजराज भाग जाता है। संत दादू दास जी ने स्पष्ट कर दिया है कि कबीर ही सारी सृष्टि (कायनात) को उत्पन्न करने वाला परमेश्वर है।
गवाह नं. 3 {संत धर्मदास जी बांधवगढ़ (मध्य प्रदेश, भारत) वाले}:- हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण धर्मदास जी हिन्दू धर्मगुरूओं द्वारा बताए अधूरे ज्ञान के आधार से साधना किया करते थे। एक समय धर्मगुरूओं के बताए अनुसार तीर्थ भ्रमण करते हुए मथुरा (श्री कृष्ण की नगरी) में गए हुए थे। पत्थर व पीतल की देवी-देवताओं (श्री विष्णु, श्री शंकर व देवी आदि) की मूर्तियों को थैले में डालकर साथ लिए हुए थे। सुबह तीर्थ में (उस तालाब में श्री कृष्ण स्नान किया करते थे,) उसमें स्नान करके मूर्तियों की पूजा करने लगा। उस समय कबीर अल्लाह भारत देश के काशी शहर में जुलाहे की भूमिका करने संसार में प्रकट थे, जो धर्मदास जी को सत्य मार्ग बताने हेतु मथुरा के उसी तालाब पर पहुँचे और सब क्रिया करते धर्मदास जी को देख रहे थे। धर्मदास जी ने मूर्तियों की उपासना के पश्चात् श्रीमद्भगवत गीता का पाठ किया। खुदा कबीर धर्मदास जी की सब क्रियाओं को ध्यान से देख व सुन रहा था। धर्मदास जी अपनी दैनिक भक्ति की क्रियाओं से फारिक हुआ। तब परमेश्वर कबीर जी ने उससे ज्ञान चर्चा की। ज्ञान चर्चा का दौर कई दिनों तक चला।
धर्मदास जी को भी अल्लाह कबीर जी अपने सतलोक में बने तख्त के पास लेकर गए। धर्मदास जी तीन दिन तक बेहोश रहे। ऊपर के सब लोक दिखाए। अपना सतलोक दिखाया। सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान समझाकर पुनः शरीर में प्रवेश कर दिया। उसके पश्चात् संत धर्मदास जी ने अपनी पहले वाली इबादत त्याग दी तथा अपने नबी स्वयं बनकर आए अल्लाह कबीर द्वारा बताई सच्ची इबादत की और पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया। धर्मदास जी ने अल्लाह कबीर की महिमा में अनेकों वाणी बोली:-
आज मोहे दर्शन दियो जी कबीर।।
अमरलोक से चलकर आए, काटन जम की जंजीर।
हिन्दू के तुम देव कहाए मुसलमान के पीर।
दोनों दीन का झगड़ा छिड़ गया, टोहा ना पाया शरीर।।
धर्मदास की अर्ज गुंसाई, खेवा लंघाइयो परले तीर।।
अर्थात् धर्मदास जी ने सतलोक देखने के बाद माना कि काशी वाला जुलाहा कबीर सारी कायनात को उत्पन्न करने वाला कादर अल्लाह है। उनकी महिमा विस्तार के साथ बताई जो आँखों देखी थी।
जब परमेश्वर कबीर जी भारत देश के गोरखपुर जिला उत्तरप्रदेश प्रांत के मगहर कस्बे से सशरीर सतलोक गए थे। उस समय उनके हिन्दू राजा बीर सिंह जो काशी शहर के राजा थे तथा मुसलमान नवाब बिजली खान पठान जो मगहर कस्बे के नवाब थे, दोनों शिष्य थे। अनेकों हिन्दू तथा मुसलमान मगहर, काशी तथा अनेकों स्थानों के व्यक्ति भी कबीर जी के शिष्य थे जो सँख्या में चैंसठ लाख बताए हैं। जब कबीर जी ने सतलोक जाने की बात कही तो दोनों (हिन्दू तथा मुसलमान) धर्मों के व्यक्ति तथा राजा अपनी-अपनी रीति से अंतिम संस्कार करने की बात की जिद करके लड़ने को तैयार हो गए थे। तब कबीर जी ने उनसे कहा कि आप लड़ाई नहीं करना। मैं एक चद्दर नीचे बिछाऊँगा, एक ऊपर ओढूँगा। आप मेरे शरीर के दो भाग कर लेना तथा एक-एक चद्दर व आधा-आधा शरीर ले लेना। जो लड़ाई करेगा, उसको त्याग दूँगा। एक चद्दर बिछाई गई। भक्तों ने श्रद्धा से उसके ऊपर दो-तीन इंच मोटाई में सुगंधित फूल बिछा दिए। कबीर जी उनके ऊपर लेट गए। एक चद्दर ऊपर ओढ़ी। दोनों धर्मों के व्यक्ति अपने मन में दोष लिए हुए थे कि आधे शरीर का संस्कार अपशगुन यानि बुरा होता है। इसलिए युद्ध करके पूरा शरीर लेकर संस्कार करेंगे। अल्लाह कबीर तो मन की बात भी जानता है। कुछ समय पश्चात् आकाश से आवाज आई कि चद्दर उठाकर देखो, इसके नीचे मुर्दा नहीं है। सबने ऊपर नजर की। देखा तो कबीर जी आकाश में ऊपर की ओर जा रहे थे। कह रहे थे कि मैं सर्व सृष्टि का रचनहार परमेश्वर कबीर करतार हूँ। तुम मुझे समझ नहीं सके। चद्दर उठाई तो शव के समान सुगांधित फूलांे का ढे़र लगा था। कबीर खुदा अपने आसमान वाले तख्त (सिंहासन) पर जा विराजे थे। यदि यह चमत्कार परमेश्वर न करते तो हिन्दू तथा मुसलमानों का घोर युद्ध होता। हजारों व्यक्ति मारे जाते। उस अनर्थ को परमेश्वर बिना कोई नहीं टाल सकता। उसी समय हिन्दू तथा मुसलमान आपस में गले लगकर अल्लाह के चले जाने के गम में बिलख-बिलखकर रोने लगे। कहने लगे कि हमने अल्लाह को पहचाना नहीं। हमसे बड़ी गलती हुई है। दोनों धर्मों में एक-एक चद्दर तथा आधे-आधे फूल बाँटे। बिजली खान पठान (मगहर के नवाब) ने अपने पीर कबीर जी के लिए दोनों धर्मों को एक स्थान पर (सौ फुट के अंतर में) फूलों का अंतिम संस्कार करने के लिए जगह दे दी। दोनों धर्मों ने एक चद्दर तथा आधे फूलों का अपनी-अपनी रीति से अंतिम संस्कार किया। आज भी दोनों यादगार मगहर नगर (जिला-संत कबीर नगर, उत्तरप्रदेश, भारत) में विद्यमान हैं। बिजली खान पठान ने दोनों यादगारों के लिए 500-500 बीघा जमीन दान (जकात) में दी थी।
जब परमेश्वर कबीर जी सबके बीच से चले गए तो इस वियोग में संत धर्मदास जी ने रोते हुए कहा था कि हे परमेश्वर कबीर जी! मुझे फिर से दर्शन दो। आप तो सतलोक से अपने तख्त (सिंहासन) से चलकर पृथ्वी के ऊपर हमारे कर्म बंधन रूपी जंजीर काटने आए थे। दोनों (धर्मों) का झगड़ा होने जा रहा था। सबने अपनी-अपनी सेना हथियारों सहित लड़ने को तैयार कर दी थी। आपका शरीर ही नहीं मिला। आप कादर अल्लाह हो। इसको समझने के लिए यह लीला पर्याप्त है। हे परमेश्वर! मेरे जीवन रूपी खेवे (नौका) का संसार रूपी दरिया के (परले तीर) दूसरे किनारे लगाओ यानि मोक्ष प्रदान करो। कुछ दिनों के पश्चात् संत धर्मदास जी को अल्लाह कबीर जी फिर सतलोक से आकर मिले। उसके साथ रहे। संत धर्मदास जी को सतलोक भेजा। इससे सिद्ध हुआ कि जो अल-खिज्र रूप में हजरत मुहम्मद सल्लम आदि को मिला था, वह अल-कबीर ही सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता खुदा है।
गवाह नं. 4 (संत मलूक दास जी):- संत मलूक दास जी को भी कबीर जी सतलोक लेकर गए। सब व्यवस्था दिखाकर वापिस शरीर में छोड़ा था। पहले मलूक दास जी श्री कृष्ण तथा श्री रामचन्द्र (श्री विष्णु जी) के परम भक्त थे। उसके पश्चात् पहले वाली पूजा त्यागकर खुदा कबीर जी द्वारा बताई इबादत की। मोक्ष प्राप्त किया। संत मलूक दास जी ने कहा:-
जपो रे मन साहेब नाम कबीर, जपो रे मन परमेश्वर नाम कबीर।।
एक समय गुरू बंसी बजाई, कालंद्री के तीर।
सुर नर मुनिजन थकत भये, रूक गया जमना नीर।
अमृत भोजन म्हारे सतगुरू जीमें, शब्द दूध की खीर।
दास मलूक सलूक कहत है, खोजो खसम कबीर।।
अर्थात् संत मलूक दास जी ने स्पष्ट किया है कि परमात्मा कबीर जी का नाम जपा करो। उस (खसम) सर्व के मालिक कबीर जी की खोज करो, उसे पहचानो। सत्य साधना करके सतलोक में कबीर खुदा के पास जाओ। जैसे श्री कृष्ण के विषय में बताया जाता है कि वे बांसुरी मधुर बजाते थे। उसको सुनकर गोपियाँ व गायें खींची चली आती थी। मलूक दास ने बताया है कि एक समय मेरे सतगुरू कबीर जी ने (कालंद्री) जमना दरिया के किनारे बांसुरी बजाई थी जिसको सुनकर स्वर्ग लोक के देवता, ऋषिजन तथा आस-पास के गाँव के व्यक्ति खींचे चले आए थे। और क्या बताऊँ! जमना दरिया का जल भी रूक गया था। मेरे सतगुरू शब्द की खीर खाते हैं यानि अमृत भोजन के साथ-साथ अमर आनंद भी भोगते हैं। संत मलूक दास जी ने आँखों देखा बताया कि कबीर पूर्ण ब्रह्म (कादर अल्लाह) है।
गवाह नं. 5 (श्री नानक देव जी):- श्री नानक जी को परमात्मा मिले थे जिस समय श्री नानक देव साहेब जी सुल्तानपुर शहर में नवाब के यहाँ मोदी खाने में नौकरी करते थे। सुल्तानपुर शहर से आधा कि.मी. दूर बेई नदी बहती है। श्री नानक जी प्रतिदिन उस दरिया में स्नान करने जाया करते थे।
एक दिन परमात्मा जिंदा बाबा की वेशभूषा में बेई नदी पर प्रकट हुए, वहाँ श्री नानक
देव जी से ज्ञान चर्चा हुई। उसके पश्चात् श्री नानक जी ने दरिया में डुबकी लगाई लेकिन बाहर नहीं आए। वहाँ उपस्थित व्यक्तियों ने मान लिया कि नानक जी दरिया में डूब गए हैं। शहर के लोगों ने दरिया में जाल डालकर भी खोजा, परंतु निराशा ही हाथ लगी क्योंकि श्री नानक देव जी तो जिन्दा बाबा के रूप में प्रकट परमात्मा के साथ सच्चखण्ड (सत्यलोक) में चले गए थे। तीन दिन के पश्चात् श्री नानक देव जी वापिस पृथ्वी पर आए। उसी बेई नदी के उसी किनारे पर खड़े हो गए जहाँ से अन्तध्र्यान हुए थे। श्री नानक जी को जीवित देखकर सुल्तानपुर के निवासियों की खुशी का ठिकाना नहीं था। श्री नानक जी की बहन नानकी भी सुल्तानपुर शहर में विवाही थी। अपनी बहन के पास श्री नानक जी रहा करते थे। अपने भाई की मौत के गम से दुःखी बहन नानकी को बड़ा आश्चर्य हुआ और गम खुशी में बदल गया। श्री नानक देव को परमात्मा मिले, सच्चा ज्ञान मिला, सच्चा नाम (सत्यनाम) मिला। पुस्तक भाई बाले वाली “जन्म साखी गुरू नानक देव जी” में तथा प्राण संगली हिन्दी लिपि वाली में जिसके सम्पादक सन्त सम्पूर्ण सिंह हैं, इन दोनों पुस्तकों में प्रमाण है कि श्री गुरू नानक देव जी ने स्वयं मर्दाना को बताया कि मुझे परमात्मा जिंदा बाबा के रूप में बेई नदी पर मिले, जब मैं स्नान करने के लिए गया। मैं तीन दिन तक उन्हीं के साथ रहा था। वह बाबा जिन्दा मेरा सतगुरू भी है तथा वह सर्व सृष्टि का रचनहार भी है। इसलिए वही “बाबा” कहलाने का अधिकारी है, अन्य को “बाबा” नहीं कहा जाना चाहिए, उसका नाम कबीर है।
कायम दायका कुदरती सब पीरन सिर पीर आलम बड़ा कबीर।।
इसलिए श्री नानक जी की वाणी (महला 1) है, वह सूक्ष्म वेद से मेल खाती है, यह सही है। अन्य सन्तों की वाणी इतनी सटीक नहीं है। कारण यह है कि श्री नानक देव जी को परमात्मा कबीर जी मिले थे।
प्रमाण:- श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में पृष्ठ 24 पर लिखी वाणी:-
एक सुआन दुई सुआनी नाल भलके भौंकही सदा बियाल,
कुड़ छुरा मुठा मुरदार धाणक रूप रहा करतार।
तेरा एक नाम तारे संसार मैं ऐहो आश ऐहो आधार, धाणक रूप रहा करतार।
फाही सुरत मलूकी वेश, एह ठगवाड़ा ठगी देश।
खरा सिआणां बहुता भार, धाणक रूप रहा करता।।
श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी के पृष्ठ 731 पर निम्न वाणी है:-
नीच जाति परदेशी मेरा, क्षण आवै क्षण जावै।
जाकि संगत नानक रहंदा, क्यूकर मुंडा पावै।।
पृष्ठ 721 पर निम्न वाणी लिखी है:-
यक अर्ज गुफतम पेश तोदर, कून करतार।हक्का कबीर करीम तू, बेएब परवरदिगार।।
यह उपरोक्त अमृतवाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहेब जी की है जिससे सिद्ध हुआ कि श्री नानक जी को परमात्मा मिले थे। वह “कबीर करतार” है जो काशी में धाणक रूप में लीला करने आए थे।
उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ है कि कबीर जुलाहा काशी (भारत) वाला सबका उत्पत्ति करने वाला, सबका धारण-पोषण करने वाला समर्थ परमात्मा है। वही अल-खिज्र के वेश में अच्छी आत्माओं को मिला था। वह ऐसे अन्य वेश बनाकर नेक आत्माओं को भी भक्ति की उत्तम विधि का ज्ञान करवाता है। ऊपर जो सुल्तान इब्राहिम इब्न अधम के प्रकरण से भी स्पष्ट है कि अल-खिज्र ही कबीर अल्लाह है।
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