मोक्ष की परिभाषा क्या है

मोक्ष की परिभाषा क्या है

प्रश्न:- मोक्ष की परिभाषा क्या है तथा मोक्ष प्राप्ति कैसे होती है?

उत्तर:- मोक्ष का अर्थ है ‘‘मुक्ति’’। किसी बंधन से छुटकारा पाना मोक्ष प्राप्त करना कहा जाता है। जैसे तोते पक्षी को पिंजरे में बंद कर रखा था। तब वह बंधन में था। तोते को पिंजरे से निकालकर स्वतंत्र कर दिया तो वह बंधन मुक्त हो गया।

अध्यात्म मार्ग में मोक्ष तथा बंधन इस प्रकार हैं:-

कर्मों के बंधन में जीव बंधा है। जिस कारण से जन्म तथा मृत्यु के चक्रव्यहू में फँसकर कष्ट उठा रहा है। यह बंधन है। इस कर्मों के बंधन से छुटकारा मिलना मोक्ष प्राप्ति है। सब जीव जो काल ज्योति निरंजन के लोक में हैं, ये सब कर्मों के बंधन में बंधे हैं। जैसा कर्म अच्छा या बुरा प्राणी करेगा, उसका फल भी उसे अवश्य मिलेगा। जो काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) के रसूलों (संदेशवाहकों) द्वारा बताए ज्ञान के आधार से भक्ति कर्म करते हैं, उनको गुरू बनाना अनिवार्य है। गुरू जी के बताए अनुसार भक्ति करने से वे काल ब्रह्म के साधक स्वर्ग (जन्नत) तथा नरक (जहन्नम) में अवश्य जाएँगे क्योंकि काल ब्रह्म के लोक में दोनों प्रकार के कर्म (पाप कर्म तथा पुण्य कर्म) भोगकर ही समाप्त करने पड़ते हैं। गुरू अपने शिष्य/शिष्या को पाप कर्मों से बचने की तथा पुण्य कर्म करने की प्रेरणा करता है। जिस कारण से गुरू जी का अनुयाई पुण्य अधिक प्राप्त कर लेता है। इसलिए जब वह संसार छोड़कर जाएगा तो स्वर्ग (जन्नत) में रहने का समय अधिक मिलता जाता है जो पुण्यों का प्रतिफल होता है। स्वर्ग समय समाप्त होने के पश्चात् वह साधक (दोजख) नरक में भी जाता है तथा पृथ्वी के ऊपर अन्य प्राणियों के शरीरों में कर्म का दंड भोगता है। फिर एक मानव (स्त्री-पुरूष का) जन्म उसे मिलता है। उस मानव जीवन में जैसे कर्म करेगा, उसको फिर उपरोक्त कर्मफल मिलेगा। यह सिलसिला सदा चलता रहेगा।

ये काल ब्रह्म के भक्त स्वर्ग (जन्नत) के निवास के समय को मोक्ष मानते हैं जो सीमित है। यह मोक्ष समय चाहे चार युग (सतयुग, त्रोतायुग, द्वापर युग तथा कलयुग) जितना यानि तिरतालीस लाख बीस हजार वर्ष का होता है। ये चारों युगों का समय है, इसे चतुर्युग भी कहते हैं। यह मोक्ष समय एक हजार चतुर्युग का होता है जो ब्रह्मा जी (रजगुण देवता) का एक दिन का समय है।

कुछ ऋषियों ने ब्रह्मलोक (काल लोक की महाजन्नत) यानि महास्वर्ग को भी प्राप्त किया है। उन्होंने कई हजार चतुर्युग तक उसमें निवास किया। अधिक समय का मोक्ष प्राप्त किया है। वे भी पुनः जन्म-मृत्यु के चक्र में आए हैं। पशु-पक्षियों के जीवन भी भोगे हैं। नरक (जहन्नम) में भी कष्ट भोगा है। इन ऋषियों ने वेदों में वर्णित भक्ति की थी। गीता में भी वही वेदों वाला ज्ञान है। वेदों में पाँच यज्ञ करने का प्रावधान है तथा ओम् (ॐ) नाम का जाप करने को कहा है।

किसी ऋषि ने पाँचों यज्ञ की, किसी ने चार की, किसी ने दो या एक की। ओम् नाम का जाप जपा। उस आधार से उनको मोक्ष का समय न्यून व अधिक मिला।

तप, हठयोग करके भी स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया जाता है। तप करने वाले को तप का फल राज पद से मिलता है। स्वर्ग का राजा इंद्र तप करके बनता है। सौ मन (एक मन में 40 किलोग्राम होते हैं) देसी घी एक यज्ञ में लगना होता है, ऐसी-ऐसी सौ यज्ञ करके भी इन्द्र की पदवी प्राप्त होती है, परंतु समय सीमित है। उसके पश्चात् वहाँ भी मृत्यु होती है। फिर जन्म-मृत्यु का चक्र चलता है। यह अस्थाई मोक्ष है। जिनको सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान नहीं है, वे स्वर्ग में जाने को मोक्ष मानते हैं। यह अस्थाई मोक्ष है।

सतलोक स्थान जो सतपुरूष (कादर अल्लाह) का निवास स्थान है, जहाँ उसका तख्त है। वह सतलोक अमर स्थान है। सतपुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) कबीर भी अविनाशी है। जो सतपुरूष कबीर जी की सत्य साधना करते हैं, वे उस अमर स्थान (सत्यलोक) में चले जाते हैं। वे फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। वहाँ सदा सुखी रहते हैं। उनको अमर शरीर मिलता है। यह पूर्ण मोक्ष है। यही सही मायनों में मुक्ति है।

बाईबल तथा कुरआन का ज्ञान देने वाला भी ज्योति निरंजन (काल ब्रह्म) है। इनमें भक्ति विधि गीता तथा वेदों से भी अधूरी है। इनमें बताई इबादत से भी पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता।

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